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प्रधान संपादकीय
करने वाले साधारण-जन व शिष्ट सामाजिक वर्ग भी एक संस्कृत - प्राकृत- अपभ्रंश व देशी मिश्रित खिचड़ी - भाषा का प्रयोग करते व सुनते / समझते थे। उनके लिए संस्कृत दुर्बोध / अग्राह्य न थी, और उसका उपयोग वे बोलचाल की प्राकृत मिश्रित देशी के साथ मिलाकर सरे आम करते थे। बहुत कुछ यही स्थिति संस्कृत - नाटककारों के प्रयोगधर्मा नाटकों में, विशेष रूप से उनके रंगमंच पर अभिनय प्रयोगों के समय रही होगी । अर्थात् विशिष्ट सामाजिक- सभ्यगण, संस्कृत को अधिक सुष्ठुरीति से समझते होंगे और सामान्यजनों द्वारा प्रयुक्त जनबोलियाँ / प्राकृतें भी, जबकि सामान्य नागरिकों का अधिकांश कामकाज देशी बोलियों में चलता होगा, पर वे कामचलाऊ रूप से संस्कृत भी समझते होंगे !
इस वास्तविकता को ध्यान में लेने पर ही संस्कृत नाटकों में विभिन्न कोटि/वर्ग के पात्रों द्वारा उनके सामाजिक स्तर व भौगोलिक क्षेत्र के अनुकूल विविध स्थानीय प्राकृतों के प्रयोग की अनिवार्यता/सार्थकता का अनुमान लगाया जा सकता है, जबकि देशभर में संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश व देशी मिश्रित, अपनी-अपनी क्षेत्रीय भिन्नता / विशेषताओं से युक्त एक सर्वसाधारण लोक प्रचलित जनभाषा का प्रयोग होता रहा होगा।
5. डॉ० जितेन्द्र बाबुलाल शाह ने अपने संक्षिप्त प्रास्ताविक में पाटण की समृद्धि और उसके पुनः-पुनः उत्थान-पतन, वहाँ की शैक्षणिक / साहित्यिक गतिविधियों व अनेक सदियों में व्याप्त विशिष्ट ऐतिहासिक घटनाओं व जैनधर्म/समाज के उन्नयन / अवनयन का मार्मिक वृत्त प्रस्तुत किया है।
6. मूल संपादक पं. लक्ष्मणभाई हीरालाल भोजक ने अपने संपादकीय में पाटण की स्थापना प्रभृति प्रमुख शुभाशुभ घटनाओं के संक्षिप्तोल्लेखपूर्वक ऐतिहासिक / पुरातात्विक कलात्मक-स्थापत्य एवं शिल्प की दृष्टि से महत्वपूर्ण कृतियों, निर्माणों/स्थलों/मंदिरों/मूर्तियों/अभिलेखों आदि के रोचक वृत्तान्तपूर्वक " जैन-धातु - प्रतिमा - लेख - संग्रह " से संबंधित जो भी मूल्यवान लेख-अभिलेख साहित्य, सन् 1917 से 1982 के कालखण्ड में प्रकाशित हुआ है, उसका संक्षिप्त ब्यौरा हमें दिया है।
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सुधी पाठक/शोधक अनुभव करेंगे कि विद्वत्तापूर्ण प्राक्कथन, आमुख व संपादकीय सामग्री से संयोजित इस “पाटण - जैन- धातु - प्रतिमा - लेख - संग्रह " का मूल्य कई गुना बढ़ गया है।.
डॉ० विमल प्रकाश जैन
निदेशक