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प्रधान संपादकीय
1. 'पाटण-जैन-धातु-प्रतिमा-लेख-संग्रह' यह महत्वपूर्ण कृति कालगत/पारिस्थितिक व्यवधानों के कारण विगत 10-12 वर्षों से प्रकाशन की राह देख रही है। भूल कहाँ हुई, आज तक कुछ ज्ञात नहीं हो पाया। सारा कुछ प्रयत्न करने पर भी इस लेख संग्रह के भाषिक-वैशिष्ट्य के विषय में श्रद्धास्पद स्वर्गीय डॉ० हरिवल्लभ भायाणी की हिन्दी-भूमिका न तो खोजी जा सकी, और न पुनः लिखवायी जा सकी। अंततः निर्णय लिया गया कि जो पुरोवाक्, प्रास्ताविक एवं पुनर्लिखित संपादकीय उपलब्ध हैं, उनको योजित करके इसे प्रकाशित कर दिया जावे। इसे
और अधिक रोके रखना, अक्षम्य अपराध होता। 2. लेख संग्रह के मूल भाग में कालक्रम से जैन प्रतिमाओं के पादमूल में उत्कीर्ण 1568 लेखों के उपरान्त क्रमांक 1569 से लेकर 1737 तक 168 अनुपूर्ति लेख हैं, जो संपादक के अनुसार सहेतुक कालक्रम से व्यतिरिक्त हैं। 3. ये धातु प्रतिमा लेख तत्कालीन-शैक्षणिक-सांस्कृतिक-औद्योगिक एवं व्यापारिक क्रियाकलापों के केन्द्र में स्थित पाटन के चतुर्दिक क्षेत्रीय भाषिक-स्थिति की दृष्टि से भाषिक-विशेषज्ञों के विशेष अध्ययन की सामग्री उपलब्ध कराते हैं। डॉ० व्ही. वेंकटाचलम् ने अपने प्राक्कथन में तत्कालीन गुजराती, प्राकृत के देशी शब्दों व रूपों के सम्मिश्रण से निर्मित एक सरलीकृत मिश्र-देशज संस्कृत के स्वरूप पर सोदाहरण, सविस्तर प्रकाश डाला है। ये प्रतिमा लेखं निःसन्देह सामाजिक, भौगोलिक, ऐतिहासिक शोध की दृष्टि से भी बहुमूल्य हैं। 4. भाषिक रचना का जो स्वरूप प्रतिमा लेखों में प्राप्त होता है, भाषा का वैसा ही, अपितु उससे भी अधिक रोचक, अधिक देशी तत्वों से नियोजित रूप मध्यकाल की लगभग 9 वीं से 17 वीं शती तक के 900 वर्षों के बीच अपभ्रंश रचनाओं की हस्तप्रतियों में लिपिकारों द्वारा रचित्त ग्रंथ-प्रशस्तियों एवं पुष्पिकाओं में देखने को मिलता है। (देखें, पं. परमानंद कृत जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह, भाग 1 व 2)
. इस घटना से अतिरोचक ऐतिहासिक व सामाजिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण एक तथ्य बरबस प्रकट हुए बिना नहीं रहता, और वह यह कि मध्यकालीन मध्यदेश (उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्यगिरि, पूर्व में गंगासागर और पश्चिम में अरबसागर) का विशाल भूभाग राजनीतिक दृष्टि से कितने ही राज्यों/उपराज्यों आदि में क्यों न विभाजित रहा हो, भाषिक, सांस्कृतिक, सामाजिक व धार्मिक दृष्टियों से इस समूचे क्षेत्र में अखिल भारतीय संस्कृति की एक ही प्राणधारा प्रवहमान थी। इसी कारण से क्षेत्रीय बोलियों (प्राकृत, अपभ्रंश) का प्रयोग