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निश्चयनय और व्यवहारनय
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यदि ज्ञान में ज्ञेय झलकें ही नहीं अर्थात् ज्ञेयाकार परिणमन ही न हो तो लोकालोक का आरोप किस पर किया जाएगा ? अतः ज्ञान का विशेष परिणमन तो यथार्थ ही है, परन्तु उसे ज्ञेय कहकर ज्ञान में लोकालोक झलकता है ऐसा कहना उपचार है ।
केवली भगवान निश्चयनय से आत्मा को जानते हैं और व्यवहारनय से लोकालोक को जानते हैं - इस कथन के सन्दर्भ में यह बात गम्भीरता से विचारणीय है कि केवलज्ञान में तो नय ही नहीं होते तो फिर निश्चयनय या व्यवहारनय से जानते हैं - ऐसा कहने का क्या आशय है? वास्तव में हम अपने श्रुतज्ञान में केवलज्ञान का स्वरूप ऐसा जानें कि वह केवलज्ञान, अपने स्वरूप को ही प्रकाशित करता है तो हमने केवलज्ञान का स्वाश्रित स्वरूप जाना; यही हमारे श्रुतज्ञान में निश्चयनयरूप परिणमन है। इसीप्रकार यदि हम केवलज्ञान का स्वरूप, लोकालोक को जाननेवाला जानें तो यह उस केवलज्ञान का पराश्रित निरूपण होने से हमारे ज्ञान में व्यवहारनयरूप परिणमन है। इसप्रकार केवलज्ञान के सम्बन्ध में निश्चय - व्यवहारनय हमारे ज्ञान में होते हैं, केवलज्ञान में नहीं।
3. निश्चय - व्यवहारनय में परस्पर विरोध और अविरोध
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प्रश्न निश्चयनय और व्यवहारनय दोनों सम्यक् श्रुतज्ञान के
अंश हैं तो फिर वे परस्पर विरोधी कथन क्यों करते हैं ?
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उत्तर निश्चयनय और व्यवहारनय के कथन परस्पर विरोधी ही होते हैं। यदि दोनों एक ही प्रकार के कथन करें तो दो नय कहने की क्या जरूरत है? दोनों नय, एक ही वस्तु के भिन्न-भिन्न पहलुओं को बताते हैं, इसलिए उनमें भिन्नता और विरोध होना स्वाभाविक है; परन्तु उनमें विरोध होने पर भी वे दोनों मिलकर उसी वस्तु का स्वरूप बताते हैं -
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