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________________ 50 नय- रहस्य माना जाए अर्थात् उन्हें संयोग की अपेक्षा भी एक न माना जाए तो भस्म को मसलने में हिंसा के अभाव के समान संसारी जीवों को मसलने में भी हिंसा का अभाव हो जाएगा; अतः व्यवहार को सर्वथा अत्यार्थ मानने पर हिंसा के पोषण का प्रसंग भी आएगा। प्रश्न - केवली भगवान द्वारा लोकालोक को जानना व्यवहारनय से है - ऐसा कहने का क्या आशय है ? उत्तर वास्तव में केवली भगवान, जैसे अपने आत्मा को तन्मय होकर जानते हैं; वैसे लोकालोक को तन्मयतापूर्वक नहीं जानते, इसलिए लोकालोक को जानना, व्यवहार कहा गया है। इसका यह आशय नहीं है कि भगवान के ज्ञान में लोकालोक सम्बन्धी ज्ञेयाकार परिणमन ही नहीं होता । - वस्तुतः ज्ञेयाकार परिणमन भी ज्ञान का ही परिणमन है, ज्ञेयों का नहीं; इसलिए ज्ञेयाकार परिणमन वास्तव में आत्मा ही होने से वह आत्मा को ही प्रकाशित करता है । इस अपेक्षा से ज्ञान में स्वयं ज्ञान अर्थात् आत्मा ही प्रकाशित होने से केवलज्ञान अपने को प्रकाशित करता है यह कथन, ज्ञान का स्वाश्रित निरूपण होने से निश्चयनय का है। कहा भी है ज्ञेयाकार ज्ञान में भी कलाकार ज्ञान है' अथवा - - तुम्हारा चित् प्रकाश कैवल्य, कहें तुम ज्ञायक लोकालोक' ज्ञान में बनते हुए ज्ञेयाकार प्रतिबिम्ब को ज्ञेय कहना, ज्ञान में ज्ञेय का उपचार करना ही है; अतः यह ज्ञान का पराश्रित निरूपण होने से उपचरित कथन हुआ कि 'ज्ञान लोकालोक को जानता है । ' -- 1. मुमुक्षु समाज में प्रचलित आध्यात्मिक गीत 2. बाबू जुगलकिशोरजी 'युगल' कृत सिद्ध- पूजन
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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