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________________ . 49 निश्चयनय और व्यवहारनय द्वितीय व्याख्यान में व्यवहार को अभूतार्थ और भूतार्थ भी कहते हैं। - इस सम्बन्ध में पूज्य गुरुदेवश्री ने समयसार की 11वीं गाथा के . प्रवचनों में विशेष स्पष्टीकरण किया है, जो प्रवचन रत्नाकर, भाग 1, पृष्ठ 147-148 पर पठनीय है। यह अत्यन्त खेद की बात है कि बहुत से लोग पूज्य गुरुदेवश्री के प्रवचनों का सांगोपांग गहन अध्ययन किये बिना ही उन्हें एकान्ती, स्वच्छन्दी, निश्चयाभासी आदि समझ लेते हैं, लेकिन यदि उनके प्रवचनों का निष्पक्ष दृष्टि से गहन अध्ययन करें तो न केवल भ्रम निकल जाएगा, अपितु वस्तु-स्वरूप का यथार्थ निर्णय करके मोक्षमार्ग की प्राप्ति का सम्यक् पुरुषार्थ भी कर सकेंगे। प्रश्न - व्यवहारनय को सर्वथा सत्यार्थ मानने में क्या हानि है? उत्तर - व्यवहारनय, जीव और शरीर को एक कहता है, आत्मा को रागादिरूप या गुणस्थान-मार्गणास्थान आदि के भेदरूप कहता है। यदि व्यवहारनय को सर्वथा सत्यार्थ माना जाए तो जीव और शरीर को एक कहनेवाले कथन भी सत्यार्थ हो जाएंगे, जिससे मिथ्यात्व का पोषण होने का प्रसंग आएगा। प्रश्न - व्यवहारनय को सर्वथा असत्यार्थ मानने में क्या हानि है?" उत्तर - नियमसार, गाथा 159 में केवली भगवान द्वारा लोकालोक : को जानना, व्यवहारनय से कहा गया है। यदि व्यवहारनय को सर्वथा असत्यार्थ माना जाए तो उनके द्वारा लोकालोक का ज्ञान अर्थात् सर्वज्ञता भी असत्यार्थ होगी; अर्थात् सर्वज्ञता के अभाव का प्रसंग आएगा तथा संसार और मोक्ष भी सिद्ध नहीं होंगे। इसीप्रकार जीव और देह को एक कहना भी सर्वथा असत्यार्थ
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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