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नय-रहस्य उपयोगिता है तो समयसार आदि अध्यात्म ग्रन्थों में निश्चयनय को भूतार्थ और व्यवहारनय को अभूतार्थ क्यों कहा गया है?
उत्तर - निश्चयनय के विषयभूत शुद्धात्मतत्त्व के आश्रय अर्थात् श्रद्धा-ज्ञान-आचरण से मोक्षमार्ग के प्रयोजन की सिद्धि होती है, इसलिए निश्चयनय को भूतार्थ कहते हैं तथा व्यवहारनय के विषयभूत आत्मा के अवलम्बन से मोक्षमार्ग के प्रयोजन की सिद्धि नहीं होती, इसलिए व्यवहारनय को अभूतार्थ कहते हैं।
- भूतार्थ का अर्थ विद्यमान और अभूतार्थ का अर्थ अविद्यमान भी होता है। निश्चयनय के विषयभूत आत्मा में अथवा त्रिकाली स्वभाव की दृष्टि में रंग-राग-भेद अविद्यमान हैं, इसलिए उन्हें विषय बनानेवाला - व्यवहारनय अभूतार्थ कहा जाता है।
प्रश्न - क्या व्यवहारनय सर्वथा अभूतार्थ है? - उत्तर - नहीं, शुद्धनय अर्थात् निश्चयनय की अपेक्षा तथा मोक्षमार्ग की अपेक्षा व्यवहारनय को अभूतार्थ/असत्यार्थ कहा जाता है; अतः वह कथंचित् अभूतार्थ है, सर्वथा अभूतार्थ नहीं। व्यवहारनय की विषयभूत पर्यायें, शरीरादि संयोग भी विद्यमान हैं, उनका सर्वथा अभाव नहीं है; अतः व्यवहारनय भी कथंचित् सत्यार्थ है। यदि दृष्टि की अपेक्षा उसे कहीं सर्वथा असत्यार्थ भी कहा हो तो यह कथन भी दृष्टि की अपेक्षा सहित. होने से कथंचित् असत्यार्थ ही समझना . चाहिए, सर्वथा नहीं।.
__ समयसार, गाथा 14 की टीका में पाँच बोलों द्वारा आत्मा का स्वरूप समझाते हुए, व्यवहारनय को पाँच उदाहरणों से कथंचित् सत्यार्थ बताया है तथा उसे परमार्थ दृष्टि से अभूतार्थ भी कहा है।
आचार्य जयसेन भी समयसार की 11वीं गाथा का अर्थ करते हुए