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निश्चयनय और व्यवहारनय रागादि कृत भेद करना उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय है।
प्रश्न - स्वाश्रितो निश्चयः पराश्रितो व्यवहारः - यह परिभाषा कब और कैसे घटित होती है?
उत्तर - वस्तुतः किसी भी द्रव्य, गुण या पर्याय का उसके स्वरूप से ही कथन करना स्वाश्रित निरूपण है और यही यथार्थ निरूपण अर्थात् निश्चयनय है तथा उसका अन्य द्रव्य, उसके गुण या पर्याय से निरूपण करना पराश्रित निरूपण अर्थात् व्यवहारनय है।
यह भी विचित्र तथ्य है कि धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल द्रव्य पूर्णतः शुद्ध, स्वतन्त्र और अखण्ड हैं; तथापि उनका निरूपण पराश्रित अर्थात् जीव और पुद्गलों की सापेक्षता से ही किया जाता है। जबकि जीव और पुद्गलों की पर्यायें शुद्ध-अशुद्ध, स्वाश्रित-पराश्रित और संयोगी-असंयोगी भी हैं; इसलिए इनका निरूपण स्वाश्रित और पराश्रित दोनों प्रकार से किया जाता है। जीव को चैतन्यगुण से तथा पुद्गल को स्पर्शादि गुणों से बताना, उनको स्वाश्रित निरूपण है तथा जीव-पुद्गल का परस्पर संयोगी कथन करना, पराश्रित निरूपण है। - अध्यात्म-पद्धति में अभेद निर्विकल्प द्रव्य को स्व एवं संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन की दृष्टि से उसमें उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, ' द्रव्य-गुण-पर्याय अथवा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की भेद कल्पना को
पर कहा जाता है। इसलिए निर्विकल्प वस्तु, स्वाश्रित अनुभूति का विषय बनती है तथा भेद से उसका विचार/कथन करना, पराश्रित या उपचरित कहा जाता है।
2. निश्चय-व्यवहारनय की भूतार्थता और अभूतार्थता प्रश्न - जब वस्तु-स्वरूप को समझने में दोनों नयों की समान