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________________ नय-रहस्य दो द्रव्यों की स्वतन्त्रता बताने का प्रयोजन हो, वहाँ उन्हीं ग्रन्थों में आगम पद्धति को मुख्य करके उसे व्यवहार से पुद्गलकृत कहा गया है तथा उपादान की अपेक्षा अशुद्धनिश्चयनय से जीव का कहा गया है। इसप्रकार रागादिभावों में विभिन्न अपेक्षाओं से निम्नानुसार नय प्रयोगों द्वारा वीतरागता का ही पोषण किया गया है - 1. शुद्धनिश्चयनय से पुद्गलकृत हैं। 2. उपचरित-सद्भूतव्यवहारनय से जीवकृत हैं। . 3. अशुद्धनिश्चयनय से जीवकृत हैं। 4. अनुपचरित-असद्भूव्यवहार नय से कर्मकृत हैं। विशेष - प्रवचनसार, गाथा 189 की टीका में रागादिभावों का कर्ता जीव को कहना - शुद्ध द्रव्य का निरूपणात्मक निश्चयनय कहा गया है, क्योंकि रागादि के कर्तृत्व में केवल (शुद्धरूप से) आत्मा ही कारण है, अन्य नहीं; अतः उन्हें जीव शुद्धनय से जीव का कहा है। . प्रश्न - अभेद वस्तु में भेद करना व्यवहार कहा गया है तो क्या भेद को भी घी के घड़े के समान उपचरित मानना चाहिए? उत्तर - आध्यात्मिक दृष्टि से पंचाध्यायी की शैली में अथवा दृष्टि के विषय की अपेक्षा भेद को भी उपचरित माना जा सकता है; परन्तु अभेद और भेद की चर्चा सद्भूतव्यवहारनय के प्रकरण में आती है। अध्यात्म-पद्धति में अभेद-अखण्ड वस्तु की दृष्टि से भेद भी उपचरित या कथन मात्र कहे जाते हैं। पाण्डे राजमलजी ने 252वें कलश की टीका में अभेद निर्विकल्प वस्तु को स्वद्रव्य तथा भेद को परद्रव्य कहा है। आगम-पद्धति से विचार किया जाए तो वस्तु में विद्यमान एक-अनेक, भेद-अभेद आदि सभी धर्म निश्चय से ही हैं; अतः अभेद वस्तु में गुण-गुणी आदि का भेद करना अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय है और
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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