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________________ निश्चयनय और व्यवहारनय में मानना या श्रद्धान शब्द का प्रयोग भी कर दिया जाता है। वस्तुतः व्यवहारनय के कथन को वस्तु का सच्चा स्वरूप न जानकर, संयोगादि की अपेक्षा किया गया कथन जानना यथार्थ है; अर्थात् संयोग को संयोग जानना, विकार को विकार जानना, भेद को भेद जानना तथा वस्तु को अभेद अखण्ड निर्विकल्परूप जानना, यथार्थ निरूपण होने से निश्चयनय है और असंयोगी/अविकारी, अभेद वस्तु को संयोगी, विकारी और भेदरूप जानना/कहना व्यवहारनय है। इसप्रकार यथार्थ निरूपण सो निश्चय और उपचार निरूपण सो व्यवहार - इस परिभाषा को विस्तार और गहराई से समझना चाहिए। उपर्युक्त परिभाषा में सर्वाधिक मार्मिक सन्देश यह है कि किसी द्रव्य-भाव का नाम निश्चय और किसी द्रव्य-भाव का नाम व्यवहार - ऐसा नहीं है। . निश्चय-व्यवहारनयों के प्रतिपादन का मूल सूत्र है - वस्तु एक, निरूपण दो। दो द्रव्यों को या उनके गुणों को या पर्यायों को किसी को निश्चय और किसी को व्यवहार नहीं कहा जाता। इसी का स्पष्टीकरण करते हुए पण्डितजी, मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ 249 पर लिखते हैं - एक ही द्रव्य के भाव का उसस्वरूप निरूपण करना निश्चयनय है और उसी द्रव्य के भाव का अन्य द्रव्य के भावस्वरूप निरूपण करना व्यवहारनय है। इसप्रकार निरूपण की अपेक्षा नय घटित होते हैं। उक्त कथन से यह स्पष्ट होता है कि निश्चय-व्यवहारनय, किसी द्रव्य, गुण या पर्याय का नाम या स्वरूप नहीं है; अपितु उनके यथार्थ या उपचरित निरूपण की पद्धति है। यहाँ विभिन्न नय-प्रयोगों से यही बात स्पष्ट की जा रही है ।
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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