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________________ 42 नय-रहस्य एक मानना मिथ्या है, जो कि अनन्त संसार का कारण है और उन्हें भिन्न-भिन्न जानना सम्यक् है, जो कि मुक्ति का कारण है। प्रश्न - यदि व्यवहारनय कथन में ही है, मान्यता में नहीं तो निश्चयनय के भी कथन होते हैं या नहीं और व्यवहारनय के बारे में मान्यता होती है या नहीं? - उत्तर - पाण्डे राजमलजी, समयसार के पाँचवें कलश की टीका में कहते हैं कि जो कुछ कथन मात्र है सो व्यवहार है; परन्तु यह बात अभेद निर्विकल्प वस्तु और उसकी निर्विकल्प अनुभूति को ध्यान में रखकर कही गई है, लेकिन अभेद में भेद किए बिना उसका कथन नहीं हो सकता, अतः अभेद वस्तु में भेद करके जानना और कहना, व्यवहारनय कहा गया है। इसका आशय यह नहीं है कि निश्चयनय के कथन होते ही नहीं। यथार्थ निरूपण सो निश्चय और स्वाश्रितो निश्चयः - इन परिभाषाओं में तो निरूपण में ही निश्चयनय घटित किया गया है। इसीप्रकार मान्यता में केवल निश्चय होता है - ऐसा भी नहीं है। पण्डित टोडरमलजी, मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ 250 पर उभयाभासी प्रकरण में लिखते हैं कि निश्चय का निश्चयरूप और व्यवहार का व्यवहाररूप श्रद्धान करना योग्य है; क्योंकि एक ही नय का श्रद्धान करने से मिथ्यात्व होता है। वास्तव में मान्यता तो मिथ्या या सम्यक् होती है; निश्चयव्यवहाररूप नहीं; क्योंकि मान्यता, प्रतीति या श्रद्धानरूप होती है, इसीलिए वह निर्विकल्प होती है। निश्चय-व्यवहारनय श्रुतज्ञान के भेद हैं; अतः ये वस्तु को जानने में या वाणी द्वारा कहने में घटित होते हैं। फिर भी अनेक जगह मानने और जानने में भेद न करके जानने के अर्थ
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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