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________________ । 41. निश्चयनय और व्यवहारनय _ अतः यह स्पष्ट है कि स्वद्रव्य-परद्रव्य को, उनके भावों को व . कारण-कार्यादिक को मिलाकर निरूपण करना व्यवहारनय है, लेकिन उन्हें मिला हुआ मान लेना, मिथ्यात्व है। तात्पर्य यह है कि व्यवहारनय . की पद्धति से कथन करने में मिथ्यात्व नहीं है, विपरीत मान्यता में मिथ्यात्व है तथा यहाँ विपरीत मान्यता को व्यवहारनय नहीं कहा जा रहा है, मात्र संयोगादि की अपेक्षा निरूपण करने को व्यवहारनय कहा जा रहा है। प्रश्न - स्वद्रव्य-परद्रव्यादिक को मिलाकर कहने में मिथ्यात्व नहीं है तो वैसा मानने में मिथ्यात्व क्यों है? और यदि स्व-पर को एक मानने में मिथ्यात्व है तो वैसा कहना असत्य क्यों नहीं है? उत्तर - मान्यता अर्थात् श्रद्धान का विषय तो वस्तु-स्वरूप है; अतः स्वद्रव्य-परद्रव्य भिन्न-भिन्न होने पर भी उन्हें एक मानना, वस्तुस्वरूप का विपरीत श्रद्धान होने से मिथ्यात्व होता है। विचार कीजिए कि स्वद्रव्य-परद्रव्य को मिलाकर कहने के बावजूद भी वैसा माना नहीं जाता; अपितु संयोग, निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध आदि का ज्ञान करने के प्रयोजन से उन्हें मिलाकर कहा जाता है; अतः ऐसा कहने में व्यवहारनय घटित होता है। प्रश्न - जब दो द्रव्य भिन्न-भिन्न हैं तो मिलाकर कहने का प्रयोजन क्या है तथा मिला हुआ नहीं मानने का प्रयोजन क्या है? उत्तर - अनेक वस्तुओं को मिलाकर कथन करने का प्रयोजन लोक-व्यवहार चलाना होता है, आत्मानुभूति करना नहीं; लोकव्यवहार ऐसे ही चलता है, इसलिए वैसा कथन करना, व्यवहारनय से मान्य किया गया है, लेकिन मान्यता से लोक-व्यवहार सीधा प्रभावित नहीं होता, अपितु हमारी अनुभूति प्रभावित होती है। अतः दो द्रव्यों को
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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