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। नय-रहस्य 3. बोलना, चलना, खाना-पीना आदि पौद्गलिक क्रियाओं को पुद्गल की क्रिया कहना, निश्चयनय है और जीव के भावों के निमित्त की अपेक्षा उन्हें जीव की क्रिया कहना, व्यवहारनय है।
4. (अ) आत्मा को मनुष्य, देवादिरूप अथवा मनुष्य, देवादि के शरीर को पंचेन्द्रिय' जीव कहना - यह स्वद्रव्य-परद्रव्य के सम्बन्ध में किसी को किसी में मिलाकर किया गया कथन होने से व्यवहारनय का कथन है।
(ब) आत्मा को गोरा-काला, दुबला-मोटा, सुन्दर-कुरूप आदि कहना तथा आँख को देखनेवाली, कान को सुननेवाला, जिह्वा को चखनेवाली, नाक को सूंघनेवाली आदि कहना - यह स्व-पर के भावों के सम्बन्ध में किसी को किसी में मिलाकर किया गया कथन होने से व्यवहारनय का कथन है।
(स) पुस्तक, चश्मा, प्रकाश और नेत्रादि से ज्ञान की उत्पत्ति कहना तथा खाने-पीने, बोलने-चलने आदि शरीर की क्रिया का कर्ता आत्मा को कहना - यह स्व-पर के कारण-कार्यादि के सम्बन्ध में किसी को किसी में मिलाकर किया गया कथन होने से व्यवहारनय का कथन है। । उक्त तीनों कथनों का निषेध करके आत्मा और शरीर को भिन्नभिन्न कहना तथा उन्हें अपने-अपने भावों का कर्ता कहना निश्चयनय का कथन है।
विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि पण्डित टोडरमलजी ने. व्यवहारनय के बारे में लिखा है - ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व है, इसलिए इसका त्याग करना तथा निश्चयनय के बारे में लिखा है - ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व है, इसलिए इसका श्रद्धान करना।
1. मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ 257