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________________ - निश्चयनय और व्यवहारनय ग. आचार्य अमृतचन्द्रदेव समयसार, गाथा 272 की आत्मख्याति टीका में आत्माश्रित कथन को निश्चयनय और पराश्रित कथन को व्यवहारनय कहते हैं। घ. समयसार, गाथा 11 में भूतार्थ को निश्चय और अभूतार्थ को व्यवहार भी कहा गया है। आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक ग्रन्थ के सातवें अधिकार में दो वस्तुओं में सम्बन्ध को आधार बनाकर, निश्चय-व्यवहार का स्वरूप स्पष्ट करते हुए निम्न निष्कर्ष निकाले हैं - 1. सच्चे निरूपण को निश्चयनय और उपचरित निरूपण को व्यवहारनय कहते हैं। 2. एक ही द्रव्य के भाव को उसरूप ही कहना, निश्चयनय है और उसी भाव को उपचार से अन्य द्रव्यों के भावस्वरूप कहना, व्यवहारनय है। ... 3. जिस द्रव्य की जो परिणति हो, उसे उसी की कहना, निश्चयनय है और उसे ही अन्य द्रव्य की कहना, व्यवहारनय है। . 4. व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्य को, उनके भावों को व कारण- . कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है, इसलिए उसका त्याग करना तथा निश्चयनय, उन्हीं को यथावत् निरूपण करता है, किसी को किसी में नहीं मिलाता, सो ऐसे ही श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है, इसलिए उसका श्रद्धान करना। उक्त चार बिन्दुओं को विभिन्न प्रयोगों के माध्यम से इसप्रकार समझा जा सकता है - 1. आत्मा को ज्ञानस्वभावी कहना निश्चयनय और मनुष्य-देव आदिरूप कहना व्यवहारनय है। 2. मिट्टी के घड़े को मिट्टी का कहना, निश्चयनय और घी के संयोग की अपेक्षा उसे घी का घड़ा कहना व्यवहारनय है।
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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