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________________ नय-रहस्य निश्चयनय, दो भिन्न वस्तुओं में किसी भी प्रकार के सम्बन्ध का निषेध करके उन्हें अत्यन्त भिन्न बताता है। अतः दो भिन्न वस्तुओं में सम्बन्ध देखना व्यवहारनय का कार्य है और उन्हें भिन्न-भिन्न देखना, निश्चयनय का कार्य है। ख. एक द्रव्य में गुणों के भेद और गुणों के अभेद को आधार बना कर व्यवहार-निश्चयनय की परिभाषा निम्नप्रकार है - समयसार की ही सातवीं गाथा में एक अखण्ड वस्तु में ही कर्ताकर्म, भोक्ता-भोग्य आदि का भेद करना, व्यवहारनय का कार्य कहा गया है तथा इस भेद का निषेध करके वस्तु को अभेद अखण्ड निर्विकल्परूप में देखना, निश्चयनय का कार्य कहा गया है। गाथा मूलतः इसप्रकार है - ववहारेणुवदिस्सदि, णाणिस्स चरित्तं दसणं णाणं। •ण वि णाणं ण चरित्तं, ण दसणं जाणगो सुद्धो।।7। . ज्ञानी (आत्मा) के चारित्र, दर्शन और ज्ञान - ये तीन भाव व्यवहार से कहे गये हैं, निश्चय से उसका ज्ञान भी नहीं है, चारित्र भी नहीं है और दर्शन भी नहीं है, ज्ञानी तो एक शुद्ध ज्ञायक ही है। यहाँ व्यवहारनय ने एक अखण्ड आत्मा को ज्ञान-दर्शन-चारित्र के भेद करके समझाया है; किन्तु निश्चयनय ने सब भेदों का निषेध करके आत्मा को अभेद, ज्ञायकरूप कहा है। अभेद वस्तु में भेद करके कहना, व्यवहारनय है तथा भेद का निषेध करके अभेद वस्तु को बताना, निश्चयनय है - इस आशय के कथन माइल्लधवल कृत द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, आलाप-पद्धति, अनगार धर्मामृत, पंचाध्यायी, तत्त्वानुशासन, मोक्षमार्ग प्रकाशक आदि अनेक ग्रन्थों में उपलब्ध होते हैं। 1. परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ 39
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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