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निश्चयनय और व्यवहारनय
1. परिभाषा एवं विषय-वस्तु । 2. निश्चय-व्यवहार की भूतार्थता और अभूतार्थता 3. निश्चय-व्यवहार में परस्पर विरोध और अविरोध 4. निश्चय-व्यवहार में प्रतिपाद्य-प्रतिपादक सम्बन्ध 5. व्यवहार-निश्चय में निषेध्य-निषेधक सम्बन्ध 6. व्यवहार-निश्चय में हेय-उपादेयपना।
1. परिभाषा एवं विषय-वस्तु निश्चय-व्यवहार की परिभाषा अथवा विषय-वस्तु को श्री समयसार, गाथा 27 एवं 7 के आधार पर बहुत सरलता से समझा जा । सकता है।
क. दो द्रव्यों की एकता और अनेकता को आधार बनाकर क्रमशः व्यवहारनय और निश्चयनय को इसप्रकार परिभाषित किया गया है -
ववहारणओ भासदि, जीवो देहो य हवदिं खलु एक्को। ण दु णिच्छयस्स जीवो, देहो य कदा वि एक्कट्ठो।।27।।
व्यवहारनय कहता है कि जीव और देह एक ही हैं और निश्चयनय कहता है कि जीव और देह कदापि एक नहीं हो सकते।
इस गाथा के अनुसार जीव और शरीर के संयोग की मुख्यता से उन्हें एक कहना, व्यवहारनय का कार्य है तथा स्वभाव की मुख्यता से उन्हें भिन्न-भिन्न कहना, निश्चयनय का कार्य है।
इसप्रकार दो भिन्न-भिन्न वस्तुओं में एकता स्थापित करना, व्यवहारनय का कार्य है। इसी एकता के आधार पर व्यवहारनय उनमें कर्ता-कर्म, भोक्ता-भोग्य आदि सम्बन्ध भी बताता है। इसके विपरीत