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नय-रहस्य गुण-पर्यायरूप प्रत्येक अंश का भी स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है। इसप्रकार अभेद और भेद, दोनों को परस्पर मुख्य-गौणभाव से जानने पर सम्यक्-एकान्त की तथा दोनों को प्रधानरूप से जानने पर सम्यक्अनेकान्त की सिद्धि होती है।
भेद और अभेद के सम्यक्-एकान्त को स्वीकार न किया जाए तो सम्यक्-एकान्त के बिना अनेकान्त अर्थात् प्रमाण की विषयभूत वस्तु भी सम्यक् अनेकान्तरूप नहीं होकर सर्वथा अनेकान्तरूप हो जाएगी, जिससे मिथ्या एकान्त का ही प्रसंग आएगा।
सोने की अंगूठी को सर्वथा स्वर्ण मानने पर अंगूठी के लोप होने का तथा सर्वथा अंगूठी मानने पर स्वर्ण के ही लोप होने का प्रसंग आएगा; अतः उसे कथंचित् स्वर्णरूप और कथंचित् अँगूठीरूप तथा प्रमाण-विवक्षा में सोने की अंगूठी ऐसे दोनों रूप स्वीकार करना चाहिए।
प्रमाण और नय की भिन्नता स्पष्ट करते हुए धवलाकार' लिखते हैं -
प्रमाण, नय नहीं हो सकता; क्योंकि उसका विषय अनेकान्त अर्थात् अनन्तधर्मात्मक वस्तु है और न ही नय, प्रमाण हो सकता है; क्योंकि उसका विषय एकान्त अर्थात् अनन्तधर्मात्मक वस्तु का एक अंश है।
आचार्य अकलंकदेव भी नय को सम्यक्-एकान्त और प्रमाण को सम्यक्-अनेकान्त घोषित करते हुए लिखते हैं - नय-विवक्षा, वस्तु के एक धर्म का निश्चय करानेवाली होने से एकान्त है और प्रमाणविवक्षा वस्तु के अनेक धर्मों की निश्चयस्वरूप होने से अनेकान्त है।'
नय वाक्यों में स्यात् शब्द लगाकर बोलने को प्रमाण कहते हैं।
1. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 2, पृष्ठ 516 2. तत्त्वार्थराजवार्तिक, अध्याय 1, सूत्र 6