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नय-रहस्य सर्वथा अप्रमाणरूप नहीं हैं। देश और देशी अर्थात् अंश और अंशी में कथंचित् भेद माना जाता है; अतः नय प्रमाणैकदेश होने से कथंचित् प्रमाणरूप हैं और कथंचित् प्रमाण से भिन्न हैं।
प्रश्न - नय भी स्व-पर पदार्थों का निश्चय करते हैं, अतः स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् - परीक्षामुख में प्राप्त इस परिभाषा के अनुसार उन्हें प्रमाणरूप ही क्यों न माना जाए? - - उत्तर - स्व-पर पदार्थों के भी एकदेश को जानना नय का लक्षण है तथा उनके सर्वदेश को जानना, प्रमाण का लक्षण है; अतः नयों को सर्वथा प्रमाणरूप मानना ठीक नहीं है।
श्लोकवार्तिक में इस प्रकरण को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है कि वस्तु का एकदेश, न तो वस्तु है और न अवस्तु। समुद्र की बूंद को सर्वथा-समुद्र भी नहीं कह सकते और सर्वथा असमुद्र भी नहीं कह सकते। यदि एक बूंद को ही समुद्र मानें तो बहुत-से समुद्र हो जाएंगे - ऐसी स्थिति में एक अखण्ड समुद्र का क्या स्वरूप रहेगा? तथा एक बूंद को असमुद्र मानने पर समुद्र की सभी बूंदें असमुद्र हो जाएँगी तो , समुद्र का अस्तित्व ही न रहेगा।
प्रश्न - यदि अंशी को जाननेवाला ज्ञान प्रमाण है तो अंश को जाननेवाला ज्ञान प्रमाण क्यों न माना जाए? - उत्तर - अंशी या धर्मी प्रमाण का विषय नहीं, अपितु द्रव्यार्थिकनय का विषय है तथा वस्तु का एक अंश या धर्म पर्यायार्थिकनय का विषय है। इसप्रकार अंशी और अंश दोनों ही पृथक्-पृथक् नय के विषय हैं, जबकि दोनों को एक साथ जाननेवाला ज्ञान प्रमाण है।
प्रश्न - क्या अभेद वस्तु प्रमाण का विषय है और वस्तु के गुणपर्यायरूप भेद, नय के विषय हैं?
उत्तर - जिसमें सभी भेद गौण हैं - ऐसा अभेद द्रव्यार्थिकनय का