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नयों की प्रमाण से भिन्नता और अभिन्नता
पिछले अध्याय में नयों के स्वरूप की चर्चा करते हुए स्पष्ट किया जा चुका है कि नय, प्रमाण द्वारा जानी गई वस्तु के किसी एक अंश को मुख्य करके, उस अपेक्षा से वस्तु को वैसी अर्थात् उस धर्ममय जानते हैं।
यहाँ यह प्रश्न होता है कि नय और प्रमाण एक ही हैं या भिन्नभिन्न? यद्यपि प्रमाण सकलादेशी और नय विकलादेशी कहे गये हैं; अतः दोनों के लक्षण भिन्न-भिन्न होने के कारण नय, प्रमाण से भिन्न हो जाते हैं, लेकिन प्रमाण से भिन्न होने से वे अप्रमाण सिद्ध होते हैं; अतः उनके द्वारा वस्तु का जानना भी अप्रमाण ठहरता है? और यदि नय अप्रमाणरूप नहीं हैं तो वे प्रमाणरूप ही हो जाते हैं तो उनके पृथक् कथन की क्या आवश्यकता है? प्रमाण से ही वस्तु का निर्णय क्यों नहीं हो सकता? अन्य दर्शनों में भी मात्र प्रमाण की ही चर्चा है। नयों की चर्चा तो मात्र जैनदर्शन में ही है, जिन्हें प्रमाणरूप मानने से वे अनावश्यक प्रतीत होते हैं?
श्लोकवार्तिक में आचार्य विद्यानन्दि ने इस प्रकरण को स्पष्ट करते हुए कहा है कि नय न तो प्रमाण हैं और न अप्रमाण, बल्कि वे ज्ञानात्मक होने से प्रमाण के एकदेश हैं।
प्रमाण का एकदेश, प्रमाण से सर्वथा अभिन्न नहीं है, इसलिए नय सर्वथा प्रमाणरूप नहीं हैं तथा सर्वथा भिन्न भी नहीं हैं, इसलिए नय