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नय - रहस्य
मन-मर्जी की बात नहीं है । वक्ता, किसे विषय बनाना चाहेगा, यह बहुत कुछ श्रोताओं पर निर्भर होता है; क्योंकि उसके द्वारा किसी धर्म को मुख्य करने का प्रयोजन, श्रोताओं के तत्सम्बन्धी अज्ञान का नाश करना है। श्रोताओं में पर्यायपक्ष का जोर हो तो वह द्रव्यपक्ष को मुख्य करेगा । इसीप्रकार यदि श्रोताओं में क्रियाकाण्ड का पक्ष प्रबल हो तो वक्ता भावपक्ष की मुख्यता करता है। इसके अलावा तत्त्व-अभ्यासी और अध्यात्म-रसिक श्रोताओं के निमित्त से स्वयं के रस -पोषण हेतु वक्ताओं द्वारा विशेष प्रकरणों पर भी व्याख्यान किया जाता है।
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इसप्रकार वक्ता जिस धर्म को मुख्य करता है, उसे विवक्षित और शेष धर्मों को अविवक्षित कहते हैं ।
6. ज्ञानात्मकनय और वचनात्मकनय
नये, श्रुतज्ञान के भेद हैं । श्रुत भी द्रव्यश्रुत और भावश्रुत के भेद से दो प्रकार का माना गया है; अतः जब ज्ञान में वस्तु के किसी अंश को मुख्य करके जानते हैं तो ज्ञानात्मक नय होते हैं और जब वाणी द्वारा वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्य करके कहा जाए तो वचनात्मक नय होते हैं। पंचाध्यायीकार पौद्गलिक शब्दों को द्रव्यनय और जीव के चैतन्यगुण को भावनय कहते हैं । '
यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि नय, सम्यक् श्रुतज्ञान के भेद हैं; अतः उनका वक्ता भी ज्ञानी होता है। अतः ज्ञाता के अभिप्राय को नय कहें या वक्ता के अभिप्राय को - एक ही बात है।
7. नय सापेक्ष ही होते हैं, निरपेक्ष नहीं
नयों के बारे में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि वे सापेक्ष ही होते हैं। यदि नय सापेक्ष न हों तो वे नय नहीं, नयाभास होंगे अर्थात् 1. पंचाध्यायी, पूर्वार्द्ध, श्लोक 505