SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 17 नयों का सामान्य स्वरूप कथंचित् एकान्त अर्थात् सम्यक्-एकान्त निकाल दिया जाए तो मात्र सर्वथा अनेकान्त अर्थात् मिथ्या अनेकान्त ही बचता है। यदि कोई व्यक्ति, जड़-तना-शाखा-पत्ते-फूल-फलरूप वृक्ष का चित्र तो बनाना चाहे, परन्तु जड़-शाखा आदि अंगों का चित्र न बनाए तो वृक्ष का चित्र कैसे बनेगा? क्योंकि वृक्ष अपने सम्पूर्ण अंगों में व्याप्त अंगीरूप भी है तथा एक-एक अंगरूप भी है। अंगी और अंगरूप वृक्ष मिलकर अनेकान्तरूप भी है तथा एक-एक अंगरूप होने से वह सम्यक्-एकान्तरूप भी है। इसप्रकार अनेकान्त भी (अंग + अंगी) अनेकान्तरूप है अर्थात् उसमें सम्यक्-एकान्त भी शामिल है। अतः प्रमाण द्वारा जानी गई वस्तु में नय-प्रयोग करने पर सर्वथा अनेकान्तरूप : एकान्त का नाश होता है तथा कथंचित् एकान्त + कथंचित् अनेकान्तरूप वस्तु की सिद्धि होती है। अनेकान्त के दो भेद हैं - सम्यक् अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त। इसी प्रकार एकान्त के भी दो भेद हैं - सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त। सम्यक् और कथंचित् एकार्थवाची हैं तथा मिथ्या और सर्वथा एकार्थवाची हैं। इस प्रकरण के सम्बन्ध में अनेकान्त और स्याद्वाद विषय पर विवेचन करते समय विस्तार से स्पष्टीकरण किया जाएगा। 5. नयों के कथन में विवक्षित धर्म मुख्य और अविवक्षित धर्म गौण रहते हैं - वक्तुरिच्छा विवक्षा अर्थात् वक्ता की इच्छा को विवक्षा कहते हैं। वस्तु के किसी एक धर्म को मुख्य करके वस्तु का कथन करना ही विवक्षा कहलाता है। वक्ता, जिस धर्म को मुख्य करना चाहे, उसे मुख्य करके वह वस्तु का कथन करता है - यह बात सुनकर ऐसा लगता है कि वक्ता को अपनी मन-मर्जी करने की छूट दी जा रही है; परन्तु यहाँ
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy