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उसका विस्तार से विवेचन जानने हेतु इन दोनों कृतियों का तुलनात्मक अध्ययन करना आवश्यक है। मैं नय-रहस्य में समागत कुछ विशिष्ट विषयों को बिन्दुवार आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ -
१. स्वानुभूति के समय ज्ञान में निर्विकल्प नयरूप एवं निर्विकल्प प्रमाणरूप परिणमन एक साथ प्रारम्भ हो जाता है।
२. वक्ता, किसे विषय बनाना चाहेगा, यह बहुत कुछ श्रोताओं पर निर्भर करता है। यदि श्रोताओं में पर्यायपक्ष का जोर हो तो वह द्रव्यपक्ष को मुख्य करेगा। इसी प्रकार यदि उनमें क्रियाकाण्ड का पक्ष प्रबल हो तो वक्ता भावपक्ष की मुख्यता करता है।
३. बहुत-से लोग पूज्य गुरुदेवश्री के प्रवचनों का सांगोपांग गहन अध्ययन किये बिना ही उन्हें एकान्ती, स्वच्छन्दी, निश्चयाभासी आदि समझ लेते हैं, लेकिन यदि उनके प्रवचनों का निष्पक्ष दृष्टि से गहन अध्ययन करें तो न केवल हमारा भ्रम निकल जाएगा, अपितु वस्तु-स्वरूप का यथार्थ निर्णय कर, हम मोक्षमार्ग की प्राप्ति का सम्यक् पुरुषार्थ भी कर सकेंगे।
४. जिनागम के सभी व्यवहार कथनों में कोई न कोई पारमार्थिक आशय अवश्य छिपा रहता है; अत: व्यवहारनय प्रतिपादक है और उसका यथार्थ आशय अर्थात् निश्चयनय प्रतिपाद्य है।
. ५.व्यवहार के निषेध में ही उसकी सार्थकता और सफलता है। जिस प्रकार पेकिंग (आवरण) अपने में छिपी/रखी वस्तु को बताती है और सुरक्षित भी रखती है, परन्तु उस वस्तु को पाने के लिए पेकिंग को तोड़ना ही पड़ता है; उसी प्रकार व्यवहारनय को परमार्थ न मान कर ही परमार्थ को पाया जाता है। 1. नय-रहस्य, पृष्ठ 14 . 2. वही पृष्ठ 18 . 3. वही पृष्ठ 49 4. वही पृष्ठ 59 . 5. वही पृष्ठ 63-64
नय-रहस्य
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