________________
मंगलाचरण
"
जो एक शुद्ध विकार वर्जित, अचल परम पदार्थ है। जो एक ज्ञायक भाव निर्मल, नित्य निज परमार्थ है || जिसके दरश व जानने का नाम दर्शन ज्ञान है। हो नमन उस परमार्थ को, जिसमें चरण ही ध्यान है ||1|| निज आत्मा को जानकर, पहचान कर जमकर अभी । जो बन गये परमात्मा, पर्याय में भी वे सभी ।। वे साध्य हैं, आराध्य हैं, आराधना के सार हैं । हो नमन उन जिनदेव को, जो भवजलधि के पार हैं || 2 || नयचक्र से जो भव्यजन को, सदा पार उतारती । जगजालमय एकान्त को, जो रही सदा नकारती ।। निजतत्त्व को पाकर भविक, जिसकी उतारें आरती । नयचक्रमय उपलब्ध नित, यह नित्यबोधक भारती ॥3॥
नयचक्र के संचार में, जो चतुर हैं प्रतिबुद्ध हैं । भवचक्र के संहार में, जो प्रतिसमय सन्नद्ध हैं ।। निज आत्मा की साधना में, निरत तन मन नगन हैं। भव्यजन के शरण जिनके, चरण उनको नमन है ||4||
कर कर नमन निज भाव को, जिन जिनगुरु जिनवचन को । निजभाव निर्मल करन को, जिनवर कथित नयचक्र को || निजबुद्धि बल अनुसार, प्रस्तुत कर रहा हूँ विज्ञजन । ध्यान रखना चाहिए, यदि हो कहीं कुछ स्खलन ||5||
- डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल
नय - रहस्य
39