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________________ 354 नय-रहस्य परिणमन को द्रव्यकर्मादि परपदार्थों से निरपेक्ष और स्वतन्त्र सिद्ध करती है। यदि पर्याय में विकारी भावरूप परिणमने की योग्यता न होती तो अनन्त पर-पदार्थ भी आत्मा में विकार उत्पन्न नहीं करा सकते। 3. रागादि भाव, आत्मा का त्रिकाली स्वभाव न होने पर भी वे पर के कारण उत्पन्न नहीं होते। आत्मा में उन्हें धारण करने की योग्यता है अर्थात् अशुद्धनय से आत्मा का ऐसा ही स्वभाव है। इस सम्बन्ध में पूज्य गुरुदेवश्री द्वारा नय-प्रज्ञापन (गुजराती), पृष्ठ 321 पर किया गया स्पष्टीकरण इसप्रकार है - “यदि इसप्रकार का धर्म भगवान आत्मा में स्वयं का नहीं होता तो अन्य अनन्त परद्रव्य इकट्ठे होकर भी आत्मा में विकार उत्पन्न नहीं कर सकते थे। निगोद से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक जो उपाधिभाव-विकारभाव-उदयभाव-संसारभाव होते हैं, उन्हें आत्मा स्वयं ही धारण किये रहता है, क्योंकि अशुद्धनय से आत्मा का ऐसा ही स्वभाव है।" 4. यहाँ रागादि की उत्पत्ति में आत्मा के पर्यायगत स्वभाव को कारण कहा है अर्थात् यह योग्यता ही स्वभाव नामक समवाय है। 5. क्षणिक पर्याय में अशुद्धता होने पर भी आत्मा का स्वभाव निरुपाधिक और विकाररहित है, उसकी यह योग्यता. शुद्धनय का विषय है। 6. यहाँ विकार होने की योग्यता के सामने त्रिकाली सामान्य स्वभावरूप रहने की योग्यता को लिया है। निर्मल पर्यायों की योग्यता के बारे में यहाँ कोई चर्चा नहीं की गई है। इसप्रकार आत्मा एक साथ शुद्ध और अशुद्ध, दोनों धर्मों को धारण करता है।
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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