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________________ सैंतालीस नय तो बन्ध-मोक्षपर्याय में अकेला आत्मा ही परिणमता है - इसप्रकार अकेले आत्मा की अपेक्षा (अद्वैत) बन्ध-मोक्ष पर्याय को लक्ष्य में लेने की बात है। 353 बन्धपर्याय में भी अकेला आत्मा परिणमित होता है और मोक्षपर्याय में भी अकेला आत्मा ही परिणमित होता है - इसप्रकार बन्ध - मोक्ष पर्याय, निरपेक्ष हैं; इसलिए आत्मा बन्ध एवं मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करनेवाला है - ऐसा का भगवान आत्मा में एक धर्म है। " 6. यद्यपि यहाँ बन्ध और मोक्ष पर्याय में द्वैत और अद्वैत धर्म घटित किये हैं, तथापि जीवादि सातों तत्त्वों में पर की सापेक्षता से द्वैतपना और पर की निरपेक्षता से अद्वैतपना घटित हो सकता है। (46-47) अशुद्धनय और शुद्धनय आत्मद्रव्य, अशुद्धनय से घट और रामपात्र से विशिष्ट मिट्टी मात्र के समान सोपाधि ( उपाधिसहित ) स्वभाववाला है और शुद्धनय से केवल मिट्टी के समान निरुपाधि ( उपाधिरहित ) स्वभाववाला है। 1. भगवान आत्मा में औपाधिक (विकारी) भावरूप परिणमित होने की योग्यता है, जिसे अशुद्धधर्म कहते हैं, लेकिन विकारी भावरूप परिणमन होने पर भी सदा एकरूप रहने की योग्यता है, जिसे शुद्धधर्म कहते हैं इन दोनों धर्मों को जाननेवाले ज्ञान को क्रमशः अशुद्धनय और शुद्धनय कहते हैं। - 2. अशुद्धधर्म पर्यायगत योग्यता है, जिसे क्षणिक उपादान की योग्यता कहा जा सकता है। यह योग्यता ही आत्मा के विकारी
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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