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________________ नय - रहस्य व्यवहारनय कहा गया है। यद्यपि व्यवहारनय की अन्यत्र अनेक परिभाषाएँ मिलती हैं, तथापि यहाँ 'पराश्रितो व्यवहारः' अथवा व्यवहारनय, स्वद्रव्य - परद्रव्य को उनके भावों को तथा कारण कार्यादि को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है - यह परिभाषा घटित हो रही है। आत्मा कर्मों से बँधा है और कर्मों से छूटा है - ऐसा कहने में परद्रव्य की अपेक्षा आती है; अतः दोनों अवस्थाओं में द्वैत खड़ा हो जाता है। 352 3. यद्यपि अभेद आत्मा में बन्ध-मोक्ष का भेद करना भी द्वैत है, परन्तु यहाँ यह विवक्षा नहीं है। यहाँ तो कर्मों से बँधने या छूटने को द्वैत कहा गया है। 4. भगवान आत्मा, स्वयं अपनी योग्यता से बँधता या मुक्त होता है। परमाणु की स्निग्धता और रूक्षता के समान आत्मा में भी बँधने या छूटने की योग्यता है, उसे बन्ध या मुक्ति में कर्म की अपेक्षा नहीं है। इस प्रकार बन्ध-मोक्ष को स्वाधीन देखना, निश्चयनय है। प्रवचनसार, गाथा 16 में आत्मा को संसार या मुक्त अवस्था में स्वयम्भू कहा है। 5. बन्ध - मोक्ष में आत्मा स्वाधीन है इस कथन में उसकी पर्यायों की स्वतन्त्रता की घोषणा की गई है। यहाँ दृष्टि के विषयभूत त्रिकाली ध्रुव आत्मा की बात नहीं है । इस सम्बन्ध में पूज्य गुरुदेवश्री द्वारा नय- प्रज्ञापन (गुजराती), पृष्ठ 312 पर व्यक्त किए गए विचार दृष्टव्य हैं "यहाँ जो यह कहा जा रहा है कि निश्चयनय से आत्मा बन्धमोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करनेवाला है, उसमें आत्मा का त्रिकाली स्वभाव, जो कि दृष्टि का विषय है, वह नहीं लेना । यहाँ
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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