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________________ 351 सैंतालीस नय है कि गौणरूप से दूसरा कारण भी विद्यमान है। क्रियानय में अनुष्ठान की प्रधानता कही है अर्थात् शुभभाव की प्रधानता कही है, उसमें से भी यही अर्थ निकलता है कि गौणरूप से उसीसमय सम्यग्ज्ञानरूप विवेक भी विद्यमान है। शुभराग की प्रधानता से सिद्धि होती है - ऐसा क्रियानय से जब कहा जाता है, तब उसीसमय यह ज्ञान भी साथ में रहता है अर्थात् उसी काल में गौणरूप में अन्तर में शुद्धता भी विद्यमान है - ऐसा ज्ञान अन्तर में रहे, तभी क्रियानय सच्चा कहा जाता है।" (44-45) व्यवहारनय और निश्चयनय आत्मद्रव्य, व्यवहारनय से अन्य परमाणु के साथ बँधनेवाले एवं उससे छूटनेवाले परमाणु के समान बन्ध और मोक्ष में द्वैत का अनुसरण करनेवाला है और निश्चयनय से बन्ध और मोक्ष के योग्य स्निग्ध और रूक्ष गुणरूप से परिणमित बध्यमान और मुच्यमान परमाणु के समान बन्ध और मोक्ष में अद्वैत का अनुसरण करनेवाला है। ____ 1. भगवान आत्मा में एक ऐसी योग्यता है, जिससे उसकी बन्ध या मोक्षपर्यायों को कर्म की सापेक्षता (द्वैतभाव) से देखा जा सके - इस योग्यता को व्यवहारधर्म कहते हैं और इसके विरुद्ध एक ऐसी योग्यता भी है, जिससे उसकी बन्ध-मोक्षपर्यायों को कर्म से निरपेक्ष (अद्वैतभाव के रूप में) देखा जा सके। इस योग्यता को निश्चयधर्म कहते हैं - इन दोनों धर्मों को जाननेवाला ज्ञान, क्रमशः व्यवहारनय और निश्चयनय कहलाता है। . 2. यहाँ बन्ध और मोक्ष पर्यायों को कर्म की सापेक्षता से कहना
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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