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________________ 350 नय-रहस्य (42-43) क्रियानय और ज्ञाननय आत्मद्रव्य, क्रियानय से जैसे खम्भे के टकराने से सिर फूट जाने पर दृष्टि उत्पन्न होकर, जिसे निधान मिल गया है - ऐसे अन्धे के समान अनुष्ठान की प्रधानता से सधनेवाली सिद्धिवाला है और ज्ञाननय से, जैसे, मुट्ठी भर चने देकर चिन्तामणि रत्न खरीदनेवाले घर के कोने में बैठे हुए व्यापारी के समान, विवेक की प्रधानता से सधनेवाली सिद्धिवाला है। ... 1. भगवान आत्मा में अनुष्ठानपूर्वक कार्यसिद्धि की योग्यता है, जिसे क्रियाधर्म कहते हैं, इसीप्रकार ज्ञान द्वारा कार्यसिद्धि की योग्यता है, जिसे ज्ञानधर्म कहते हैं - इन दोनों को जाननेवाला ज्ञान, क्रमशः क्रियानय और ज्ञाननय कहलाता है। ____ 2. यहाँ क्रिया से आशय जड़ की क्रिया से नहीं है। यहाँ साधकदशा में होनेवाले शुभभाव को क्रिया कहा गया है, क्योंकि वे प्रायः व्रत-शील-संयमादि बाह्य क्रिया में निमित्त होते हैं। इसीप्रकार ज्ञान से आशय रत्नत्रयरूप शुद्ध परिणति से है, मात्र बहिर्लक्ष्यी क्षयोपशमज्ञान से नहीं। ___ 3. किसी को शुभभाव से मोक्ष होता है और किसी को रत्नत्रयरूप शुद्धभाव से - ऐसा नहीं है। साधक को निश्चय रत्नत्रय के साथ यथायोग्य शुभभाव होते ही हैं; अतः क्रियानय से अनुष्ठान (शुभभाव एवं महाव्रतादि क्रिया) की प्रधानता से कथन होता है। इस सम्बन्ध में नय-प्रज्ञापन (गुजराती), पृष्ठ 275 पर पूज्य गुरुदेवश्री द्वारा किया गया स्पष्टीकरण इसप्रकार है - “यहाँ प्रधानता शब्द का प्रयोग किया गया है, जो यह बताता
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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