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________________ सैंतालीस नय 349 अपने में उत्पन्न होनेवाले सुख - दुःख एवं हर्ष - शोक को भोगे अर्थात् वेदन करे, जिसे भोक्तृत्वधर्म कहते हैं और एक ऐसी योग्यता भी है, जिससे वह अपने में उत्पन्न होनेवाले सुख - दुःख एवं हर्ष - शोक को भोगता नहीं है, मात्र साक्षीभाव से जानता - देखता है। इस योग्यता को अभोक्तृत्वधर्म कहते हैं - इन दोनों धर्मों को जाननेवाला ज्ञान, क्रमशः भोक्तृत्वनय और अभोक्तृत्वनय है । 2. कर्तृत्वंनय और अकर्तृत्व में घटित होनेवाली सभी विवक्षाएँ यहाँ भी समझ लेना चाहिए, क्योंकि कर्तापन और भोक्तापन एक साथ रहते हैं। कहा भी है - 'जो करे, वही भोगे' । 3. ज्ञानी को भी चारित्र की कमजोरी के कारण पुण्य-पाप के उदय में सुख - दुःख का वेदन होता है तो भी उस सुख - दुःख को पराश्रित परिणाम जानकर अपने स्वरूप को उससे भिन्न ही जानता है। यह भेदज्ञान ही साक्षीभाव है, जिसके बल से वह सुख-दुःख को भोगते समय भी उनका ज्ञाता ही रहता है। 4. गुणी - अगुणी, कर्तृ - अकर्तृ तथा भोक्तृ - अभोक्तृ - इन छहों नयों के माध्यम से आत्मा के स्वरूप का वर्णन करते हुए डॉ. भारिल्ल नयचक्र पृष्ठ 332 पर लिखते हैं “भगवान आत्मा, गुणीनय से गुणग्राही है अर्थात् उपदेश को ग्रहण करनेवाला है और अगुणीनय से गुणग्राही नहीं है, मात्र साक्षीभाव से देखने-जाननेवाला है; कर्तृनय से अपने आत्मा में उत्पन्न होनेवाले रागादिभावों का कर्ता है और अकर्तृनय से उनका कर्ता नहीं है, मात्र साक्षीभाव से देखने-जाननेवाला है। इसीप्रकार भोक्तृनय से अपने में उत्पन्न सुख - दुःख का भोक्ता है और अभोक्तृनय से अपने में उत्पन्न सुख - दुःख का भी भोक्ता नहीं है, मात्र साक्षीभाव से जानने - देखनेवाला है । " -
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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