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________________ 348 नय-रहस्य उनका कर्ता। इस प्रकार भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से दोनों धर्म, एक साथ सिद्ध होते हैं। ज्ञान-स्वभाव रागादिरूप नहीं होता, अतः उसकी अपेक्षा आत्मा अकर्ता ही है। 3. अज्ञानी को भी भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से कर्ता-अकर्ता देखा जा सकता है। यद्यपि अज्ञानी को नय नहीं होते, तथापि ज्ञानी उसे नयदृष्टि से जानता है। वह रागादिरूप परिणमता तो है ही, एकत्वबुद्धि भी कर रहा है; अतः वह श्रद्धा-ज्ञान दोनों अपेक्षाओं से रागादि का कर्ता है, किन्तु उसी समय शुद्धनय की दृष्टि से उसका त्रिकाली स्वभाव, रागादि को छूता भी नहीं है, अतः वह भी अकर्ता है। 4. समयसार, गाथा 320 में आत्मा को आँख के समान रागादि सभी पर्यायों का अकर्ता अथवा मात्र ज्ञाता कहा है, यह कथन भिन्नभिन्न अपेक्षाओं से ज्ञानी-अज्ञानी सभी जीवों पर लागू होता है। 5. अगुणीनय में आत्मा को मात्र उपदेश का साक्षी कहा था। यहाँ अपने में होनेवाले रागादि का साक्षी कहा गया है और अभोक्तृत्व नय से अपने सुख-दुःख का साक्षी कहा गया है। तात्पर्य यह है कि आत्मा का स्वभाव तो सभी पदार्थों को साक्षीभाव से मात्र जानने का ही है। (40-41) भोक्तृनय और अभोक्तृनय आत्मद्रव्य, भोक्तृनय से हितकारी-अहितकारी अन्न को खानेवाले रोगी के समानं सुख-दुःखादि का भोक्ता है और अभोक्तृत्वनय से हितकारी-अहितकारी अन्न को खाने वाले रोगी को देखनेवाले वैद्य के समान केवल साक्षी ही है। 1. भगवान आत्मा में ऐसी योग्यता है कि वह अपनी भूल से
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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