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सैंतालीस नय की योग्यता है, जिसे अगुणीधर्म कहा है - इन दोनों धर्मों को जाननेवाला ज्ञान, गुणीनय और अगुणीनय कहते हैं। ____ 2. ये दोनों धर्म भी उपदेश-ग्रहण, करने अथवा न करने की योग्यता बताकर, आत्मा की पर्याय की स्वतन्त्रता की घोषणा करते हैं। हम किसी का उपदेश माने या न मानें - इसके लिए हम स्वतन्त्र हैं, कोई हमें बाध्य नहीं कर सकता।
3. गुणीधर्मरूप योग्यता हमें हितोपदेश ग्रहण करने का अवसर प्रदान करती है और अगुणीधर्मरूप योग्यता हमें कुगुरु आदि के उपदेश से बचने का अवसर प्रदान करती है।
(38-39) __ कर्तृनय और अकर्तृनय आत्मद्रव्य, कर्तृनय से रँगरेज के समान रागादि परिणाम का कर्ता है और अकर्तृनय से अपने कार्य में प्रवृत्त रंगरेज को देखनेवाले पुरुष की भाँति केवल साक्षी है। ____ 1. आत्मा अपने रागादि परिणामों को स्वयं अपनी योग्यता से करे - ऐसी योग्यतावाला है, जिसे कर्तृधर्म कहते हैं और उसी समय उसका स्वभाव, रागादिरूप नहीं होने की योग्यता भी रखता है जिसे अकर्तृधर्म कहते हैं - इन दोनों धर्मों को जाननेवाला ज्ञान, क्रमशः कर्तृनय और अकर्तृनय कहलाता है।
2. समयसार में रागादि में एकत्वबुद्धि को मिथ्यात्व कहा है, परन्तु यहाँ 'यः परिणमति स कर्ता' - इस परिभाषा के अनुसार ज्ञानी को भी राग का कर्ता बताया जा रहा है, साथ ही भेदज्ञान होने से वह अकर्ता तो है ही; अतः यह कहा जा सकता है कि ज्ञानी, दृष्टि (श्रद्धा) की अपेक्षा रागादि भावों का अकर्ता है और ज्ञान की अपेक्षा