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नय - रहस्य
6. कैसा भी संयोग हो, कैसा भी कर्मोदय हो, आत्मा अपने स्वरूप का लक्ष्य करके अतीन्द्रिय आनन्द भोगने में स्वतन्त्र है। वह स्वयं ही अपना ईश्वर है, अन्य कोई उसका ईश्वर नहीं है, इसलिए इस योग्यता को अनीश्वरधर्म कहा गया है।
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7. ईश्वरनय और अनीश्वरनय, ज्ञानी जीव पर किस प्रकार लागू होते हैं, इसका बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण पूज्य गुरुदेवश्री नय-प्रज्ञापन (गुजराती), पृष्ठ 233 पर इसप्रकार करते हैं.
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" पर्याय में राग-द्वेष होने से जितनी पराधीनता है, उसका ज्ञान धर्मी जीव को रहता है, पर उसी समय अन्तर्दृष्टि में आत्मा की स्वाधीन प्रभुता का ज्ञान भी रहता है, क्योंकि ईश्वरनय के समय अनीश्वरनय की अपेक्षा भी साथ ही है । जहाँ अपने द्रव्यस्वभाव की त्रिकाली ईश्वरता से चूके बिना, मात्र पर्याय की पराधीनता सम्बन्धी ईश्वरता 'पर' को देता है, वहाँ तो ईश्वरनय सच्चा है; परन्तु जो स्वभाव की ईश्वरता को भूलकर, मात्र पर को ही ईश्वरता प्रदान करे, वह ईश्वरनय भी सच्चा नहीं है, वह तो पर्याय में ही मूढ़ होने से मिथ्यादृष्टि है।"
(36-37)
गुणीनय और अगुणीनय
आत्मद्रव्य, गुणीनय से शिक्षक द्वारा शिक्षा प्राप्त करनेवाले कुमार के समान गुणग्राही है और अगुणीनय से शिक्षक के द्वारा शिक्षा प्राप्त करनेवाले कुमार को देखनेवाले प्रेक्षक पुरुष के समान केवल साक्षी है।
जिसे 1. भगवान आत्मा में उपदेश ग्रहण करने की योग्यता है, गुणीधर्म कहते हैं और उपदेश से प्रभावित न होकर उसमें मात्र जानने