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सैंतालीस नय
345 और अनीश्वरनय से हिरण को स्वच्छतापूर्वक फाड़कर, खा जाने वालेसिंह के समान स्वतन्त्रता को भोगनेवाला है। .
1. आत्मा में स्वयं पराधीनता भोगने की योग्यता है, जिसे ईश्वर धर्म कहा जाता है और उसमें स्वयं स्वाधीनता भोगने की योग्यता है, जिसे अनीश्वरधर्म कहते हैं। इन दोनों धर्मों को जाननेवाले ज्ञान को ईश्वरनय और अनीश्वरनय कहते हैं।
2. यहाँ ईश्वर धर्म का प्रयोग बड़ा विचित्र और दुर्लभ लगता है। 'ईश्वर' शब्द का अर्थ तो ऐश्वर्य को भोगनेवाला अथवा सर्व शक्तिमान् स्वाधीन सुपर पावर के रूप में जाना जाता है, परन्तु यहाँ उसे पराधीनता भोगने की योग्यता के रूप में कहा जा रहा है। इसमें यही दृष्टिकोण हो सकता है कि यह जीव, स्वयं अपने स्वाधीन स्वभाव को भूलकर पराधीनता भोगता है अर्थात् पर-पदार्थों को अपना ईश्वर बना लेता है, अतः ऐसी पराधीन होने की योग्यता को ईश्वरधर्म कहा है। कर्म-नोकर्म आदि आत्मा को पराधीन नहीं करते - यह बात ईश्वरधर्म से सिद्ध होती है। ____ 3. यह बात ध्यान देने योग्य है कि आत्मा में स्वयं पराधीनता भोगने की योग्यता है, जिसके कारण वह पराधीनता भोगने में भी स्वतन्त्र है। धर्मास्तिकाय आदि अन्य द्रव्यों में ऐसी योग्यता नहीं है। ___4. वस्तुतः कोई द्रव्य पराधीन हो ही नहीं सकता। आत्मा भी पराधीन नहीं होता, अपितु अपने विकारी परिणमन में स्वयं पराधीनता भोगता है।
5. पराधीन होने की योग्यता से सिद्ध होता है कि द्रव्यकर्म जबर्दस्ती आत्मा को विकार नहीं कराते, इस जीव में स्वयं पराधीन होकर विकार करने की योग्यता है।