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नय-रहस्य 7. वर्तमान शुभाशुभभावों द्वारा बाँधे गए पुण्य-पापकर्म आगामी संयोग-वियोग में दैव या भाग्य बनकर उदय में आते हैं।
नय क्रमांक 26 से 33 तक कहे गए चारों जोड़ों का आत्महित में योगदान का विवेचन, माननीय डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल ने परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ 324 पर किया है, जो इसप्रकार है - __ "जब कार्य होता है, तब ये पाँचों ही समवाय नियम से होते ही हैं और उसमें उक्त आठ नयों के विषयभूत आत्मा के आठ धर्मों का योगदान भी समान रूप से होता ही है। तात्पर्य यह है कि आत्मा की सिद्धि के सम्पूर्ण साधन आत्मा में ही विद्यमान हैं, उसे अपनी सिद्धि के लिए यहाँ-वहाँ झाँकने की या भटकने की आवश्यकता नहीं है।
वस्तुस्थिति यह है कि जब परमपारिणामिक भावरूप नियतस्वभाव के आश्रय से यह भगवान आत्मा, अपने पर्यायरूप अनियतस्वभाव को संस्कारित करता है, तब स्वकाल में कर्मों का अभाव होकर मुक्ति की प्राप्ति होती ही है। तात्पर्य यह है कि परमपारिणामिकभावरूप त्रिकाली ध्रुव आत्मा को केन्द्र बनाकर, जब श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र परिणमित होते हैं, तब ज्ञानावरणादिक कर्मों का अभाव होकर, अनन्तसुखस्वरूप सिद्धदशा प्रगट हो जाती है और इसमें ही उक्त आठ धर्म या आठ नय व पंच समवाय समाहित हो जाते हैं।"
(34-35)
ईश्वरनय और अनीश्वरनय आत्मद्रव्य, ईश्वरनय से धाय की दुकान पर दूध पिलाये जानेवाले राहगीर के बालक के समान परतन्त्रता को भोगनेवाला है