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नय-रहस्य अयत्नसाध्य - इस प्रश्न का उत्तर इन नयों के द्वारा दिया गया है।
2. भगवान आत्मा में अन्तर्मुखी पुरुषार्थ द्वारा मुक्ति प्राप्त करने की योग्यता को पुरुषकारधर्म कहते है और उसी समय उसमें कर्मक्षय का नैमित्तक कार्य होने की योग्यता होती है, जिसे दैवधर्म कहते है। इन दोनों धर्मों को जाननेवाला ज्ञान क्रमशः पुरुषकारनय और दैवनय कहलाता है। ___ 3. यद्यपि यहाँ इन दोनों धर्मों को अलग-अलग उदाहरणों से इष्ट संयोग के सन्दर्भ में समझाया गया है, परन्तु सिद्धान्त में एक ही कार्य में दोनों नय घटित होते हैं। क्षपकश्रेणी के पुरुषार्थ से केवलज्ञान होता है - ऐसा कहना पुरुषकारनय का कथन है और ज्ञानावरणीयकर्म के क्षय से केवलज्ञान होता है - ऐसा कहना दैवनय का कथन है। इस .. सन्दर्भ में नये प्रज्ञापन, पृष्ठ 215-216 (गुजराती) में व्यक्त किया गया पूज्य गुरुदेवश्री का चिन्तन ध्यान देने योग्य है - ..
"किसी को पुरुषार्थ से मुक्ति प्राप्त हो और किसी को दैव (भाग्य) से - इसप्रकार भिन्न-भिन्न आत्माओं की यह बात नहीं है। प्रत्येक आत्मा में ये दोनों ही धर्म एकसाथ रहते हैं; अतः दैवनय के साथ अन्य नयों की विवक्षा का ज्ञान भी होना चाहिए, तभी दैवनय का ज्ञान सच्चा कहा जाएगा।"
पुरुषार्थ से मुक्ति हुई - यह न कहकर कर्मों के टलने से मुक्ति हुई अथवा दैव से मुक्ति हुई - यह कहना दैवनय है, परन्तु उसमें भी चैतन्यस्वभाव के पुरुषार्थ का स्वीकार तो साथ में है ही।
जिस जीव को स्वभाव-सन्मुखता का पुरुषार्थ होता है, उसका भाग्य भी ऐसा ही होता है कि कर्म भी टल जाते हैं, कर्मों को टालने के लिए अलग से पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता। इसी स्थिति में यह