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नय-रहस्य पर्याय में कर्मोदय की सन्निधि में रागादि विकाररूप परिणमन करे और कर्मोदय के अभाव में विकाररूप में परिणमन न करे - इसी योग्यता को अनियतिधर्म कहते हैं और इसे जाननेवाला ज्ञान अनियतिनय है।
5. एकमात्र परमपारिमाणिकभाव ही आत्मा का नियतस्वभाव है तथा औपशमिकादि चार भाव अनियतस्वभावरूप योग्यता से होते हैं, क्योंकि वे सदा एक से नहीं रहते।
6. यह अनियत स्वभाव ही पाँच समवायों में स्वभाव नामक समवाय जानना चाहिए। त्रिकाली स्वभाव सामान्य कारण है और क्षणिकस्वभाव समर्थ कारण है तथा औपशमिकादि चार भाव कार्य हैं जिन्हें भवितव्य या होनहार भी कह सकते हैं। वह पर्याय, त्रिकाली प्रवाहक्रम का समयवर्ती अंश होने से स्वकाल है। उन पर्यायों की उत्पत्ति में प्रयुक्त होनेवाला वीर्य, पुरुषार्थ है तथा निमित्त, अनुकूल बाह्य पदार्थ है। ___7. पर्यायस्वभाव को अंनियत कहने का आशय, पर्यायों की परिवर्तनशीलता से है, न कि उनके क्रम की अनिश्चितता से है। पर्यायों का क्रम अर्थात् उनके प्रगट होने का स्वकाल तो सुनिश्चित ही है। उनमें कब कैसा परिवर्तन होगा? - यह सब सुनिश्चित है। इस प्रकार अनियतस्वभाव और क्रमबद्धपर्याय में कोई विरोध नहीं है।
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स्वभावनय और अस्वभावनय . आत्मद्रव्य, स्वभावनय से जिनकी नोंक किसी के द्वारा नहीं निकाली जाती - ऐसे पैने काँटे की भाँति संस्कारों को निरर्थक करनेवाला है और अस्वभावनय से जिनकी नोंक लुहार के द्वारा संस्कार करके निकाली गई है - ऐसे पैने बाणों की भाँति संस्कारों को सार्थक करनेवाला है।