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________________ 337 सैंतालीस नय स्वभाव है; अतः न तो हमें पर-पदार्थों को जानने की आकुलता ही करना चाहिए और न नहीं जानने का हठ ही करना चाहिए; पर्यायगत योग्यतानुसार जो ज्ञेय, ज्ञान में सहजभाव से ज्ञात हो जाएँ, उन्हें वीतरागभाव से जान लेना ही उचित है; अन्य कुछ विकल्प करना उचित नहीं है, आकुलता का कारण है। ___ आत्मा के इस सहजज्ञानस्वभाव को ही ये छह नय अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं।" (26-27) नियतिनय और अनियतिनय आत्मद्रव्य, नियतिनय से जिसकी उष्णता नियमित (नियत) होती है - ऐसी अग्नि की भाँति नियतस्वभावरूप भासित होता है और अनियतिनय से जिसकी उष्णता नियति (नियम) से नियमित नहीं है - ऐसे पानी की भाँति अनियतस्वभावरूप भासित होता है। 1. नय क्रमांक 26 से 35 तक 5 नय-युगल द्वारा कार्योत्पत्ति में कारणभूत पाँच समवायों का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। 2. इस नय-युगल में द्रव्यस्वभाव और पर्यायस्वभाव के रूप में स्वभाव नामक समवाय का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। 3. अग्नि की उष्णता की भाँति आत्मा में ऐसी योग्यता है कि वह त्रिकाल एकरूप चैतन्यस्वभाव में रहे - इस योग्यता का नाम नियतिधर्म है और इसे जाननेवाला ज्ञान नियतिनय है। परमपारिणामिक भाव आत्मा का नियतस्वभाव होने से श्रद्धेय और ध्येय है। यदि आत्मा में यह नियतस्वभाव न होता तो उसका सर्वनाश हो जाता। 4. पानी की उष्णता के समान आत्मा में ऐसी योग्यता है कि वह
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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