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सैंतालीस नय
- 339 ____ 1. आत्मा के त्रिकाली स्वभाव में ऐसी योग्यता है, जिसे . संस्कारों अर्थात् प्रयत्नों द्वारा बदला नहीं जा सकता अर्थात् वह संस्कारों को निरर्थक करती है - इस योग्यता को स्वभावधर्म कहते हैं और इसे जाननेवाला ज्ञान, स्वभावनय कहलाता है।
2. इसीप्रकार आत्मा के पर्यायस्वभाव की ऐसी योग्यता है कि उसे संस्कारित किया जा सकता है अर्थात् जो पर्याय होनेवाली है उसके अनुकूल प्रयास भी किये जाते हैं - इस योग्यता को अस्वभावधर्म कहते हैं और इसे जाननेवाला ज्ञानांश, अस्वभावनय कहलाता है। ___ 3. किसी भी वस्तु का मूलस्वभाव बदला नहीं जा सकता। चेतन कभी जड़ नहीं हो सकता, जड़ कभी चेतन नहीं हो सकता, भव्य कभी अभव्य नहीं हो सकता, अभव्य कभी भव्य नहीं हो सकता। बुन्देलखण्ड में एक कहावत प्रसिद्ध है - जाकौ जानै स्वभाव, जाय ना जी से, नीम न मीठी होय, खाओ गुड़ घी से। ___4. मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि होकर सिद्ध बन सकता है - यह अस्वभावधर्म का ही स्वरूप है।
5. अस्वभाव अर्थात् संस्कारों को सार्थक करनेवाला धर्म - यह भी पर्यायगत योग्यतारूप होने से स्वभावरूप है, फिर भी त्रिकाली स्वभाव से भिन्न बताने के लिए इसे अस्वभावधर्म कहा गया है अर्थात् यह अस्वभाव नामक स्वभाव है।
6. एक द्रव्य पर किसी अन्य द्रव्य का प्रभाव पड़ने की बात तो दूर रही, द्रव्य का मूलस्वभाव अपनी मलिन और निर्मल पर्यायों से भी प्रभावित नहीं होता, यही स्वभाव की योग्यता है। ___7. पर्यायों को संस्कारित किया जा सकता है - इसका अर्थ यह नहीं है कि उनमें परिवर्तन किया जा सकता है, पर्यायें तो अपने