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अहो - भाग्य
उपकार जिनवर का अहो, मुनि कुन्द का ध्वनि दिव्य का । जिन - कुन्द ध्वनि के मर्म उद्घाटक श्री गुरु कहान का । ।
श्री जिनेन्द्र देव के परम प्रसाद से संचित पुण्य के फलस्वरूप मुझे सोलह वर्षीय किशोरावस्था में ही पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी की स्वानुभव रस झरती दिव्यवाणी श्रवण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और निश्चय-व्यवहारनयों के नाम तथा उनकी कथन शैली से परिचय होना प्रारम्भ हो गया। इससे पूर्व निश्चय - व्यवहार, निमित्त - उपादान आदि शब्द मात्र सुने थे; अतः इनके बारे में विशेष जिज्ञासा सहज उत्पन्न हो गई थी, जिसकी पूर्ति हेतु पूज्य गुरुदेवश्री ने सम्यक् श्रुतज्ञान का दीपक लेकर मेरे जीवन में पदार्पण किया।
पूज्य गुरुदेव श्री के समागम के दो वर्ष पश्चात् 1970 में विदिशा में आयोजित प्रशिक्षण शिविर में डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल से परिचय हुआ, जिनकी तर्कप्रधान रोचक व सुबोध शैली ने मुझे बहुत गहराई से प्रभावित किया। उनके पहले प्रवचन में ही 'राम-सीता पति-पत्नी थे और सीता-राम पत्नी - पति थे; इसीप्रकार निश्चय - व्यवहार में प्रतिपाद्यप्रतिपादक और व्यवहार - निश्चय में निषेध्य-निषेधक सम्बन्ध है' - यह व्याख्या सुनकर नयों का स्वरूप जानने की जिज्ञासा बलवती होती गई।
अब लौकिक शिक्षा के साथ-साथ पूज्य गुरुदेवश्री की छत्रच्छाया, माननीय रामजीभाई, खीमचन्द भाई, बाबूभाई, बाबू जुगलकिशोरजी, डॉ. भारिल्लजी आदि के प्रवचनों का लाभ लेते हुए व्यक्तिगत स्वाध्याय मेरे जीवन का अभिन्न अंग बन गया ।
नय - रहस्य
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