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आत्मख्याति में कहा भी है
न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी स्फुटमुपरितरन्तोप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम् । अनुभवतु तमेव द्योतमानं समन्तात् जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्वभावम् ।। अर्थात् हे जगत के प्राणियों ! तुम मोहरहित होकर इस सम्यक्स्वभाव का अनुभव करो कि जहाँ यह बद्ध-स्पृष्ट आदि भाव (पुण्य, पाप, आस्रव, संवर आदि) स्पष्टतया उस स्वभाव के ऊपर तैरते हैं, लेकिन उसमें प्रतिष्ठा नहीं पाते ।
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इस विषय का विस्तृत विवेचन, हमने अपने शोध-ग्रन्थ 'जैनदर्शन में द्रव्य-गुण- पर्याय का स्वरूप' में किया है । यद्यपि वह अभी प्रकाशन में नहीं गया है, तथापि यदि कोई चाहे तो हम उसे उसके ई-मेल पर हमारे शोध-ग्रन्थ की प्रकाश्य कॉपी भेज सकते हैं।
आशा है, पाठकगण, इस विवेचन के आधार पर तत्त्वनिर्णय को सम्यक् दिशा प्रदान करेंगे।
- डॉ. राकेश जैन शास्त्री, नागपुर
1. आत्मख्याति, श्लोक 11
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नय - रहस्य