________________
334
नय-रहस्य (20-21)
सर्वगतनय और असर्वगतनय आत्मद्रव्य, सर्वगतनय से खुली हुई आँख की भाँति सर्ववर्ती (सबमें व्याप्त होनेवाला) है और असर्वगतनय से बन्द आँख की भाँति अपने में रहनेवाला है। ____ 1. नय क्रमांक 20-25 में ज्ञान और ज्ञेय सम्बन्धी चर्चा है। ज्ञान लोकालोक को जानता है; अतः जानने की अपेक्षा सर्वगत है, परन्तु अपने असंख्य प्रदेशों में ही रहता है; इसलिए असर्वगत भी है।
2. 'सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि.....' इस पंक्ति में सर्वगतनय का सहज प्रयोग हो गया है तथा 'निजानन्द रसलीन' - इन शब्दों में असर्वगतनय की झलक देखी जा सकती है।
3. अपने असंख्य प्रदेशों में रहकर, लोकालोक को जानने की योग्यता सर्वगतधर्म है और इसे जाननेवाला ज्ञान सर्वगतनय है। लोकालोक को जानते हुए भी उनसे भिन्न रहने की योग्यता, असर्वगतधर्म है और इसे जाननेवाला ज्ञान, असर्वगतनय है।
4. अन्यमत में विष्णु को सर्वव्यापी कहा गया है, परन्तु आत्मा अपने ज्ञान द्वारा लोकालोक में व्याप्त होता है अर्थात् मात्र जानता है - यही उसका सर्वगतधर्म है। प्रवचनसार, गाथा 23 में भी इसी अपेक्षा आत्मा को सर्वगत कहा गया है।
5. इन दोनों नयों को जानने से ज्ञान का स्वरूप ज्ञात होता है कि वह समस्त ज्ञेयों को जानते हुए भी अपने प्रदेशों में ही रहता है।
(22-23)
शून्यनय और अशून्यनय आत्मद्रव्य, शून्यनय से खाली घर की भाँति अकेला (अमिलित)