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________________ सैंतालीस नय 335 भासित होता है और अशून्यनय से लोगों से भरे हुए जहाज की भाँति मिलित भासित होता है। ___1. पिछले जोड़े में ज्ञान की प्रधानता से कथन किया गया था और यहाँ ज्ञेयों की प्रधानता से कथन किया गया है। 2. सम्पूर्ण ज्ञेयों को जानते हुए भी आत्मा में किसी भी ज्ञेय का प्रवेश न हो - ऐसी योग्यता को शून्यधर्म कहते हैं तथा इसे जाननेवाले ज्ञान को शून्यनय कहते हैं। 3. ज्ञान में ऐसी योग्यता है कि उसमें ज्ञेय झलकें, इस योग्यता को अशून्यधर्म कहते हैं और इस जाननेवाला ज्ञान, अशून्यनय कहलाता है। कैवल्य कला में उमड़ पड़ा, सम्पूर्ण विश्व का ही वैभव - इस पंक्ति में अशून्यनय का प्रयोग स्पष्ट झलक रहा है। 4. अशून्यनय ज्ञान में समस्त ज्ञेय झलकने की योग्यता बताता है और शून्यनय ज्ञान की ज्ञेयों से अत्यन्त भिन्नता बताता है। (24-25) ज्ञान-ज्ञेय-अद्वैतनय और ज्ञान-ज्ञेय-द्वैतनय आत्मद्रव्य, ज्ञान-ज्ञेय-अद्वैतनय से महान ईंधन समूहरूप परिणत अग्नि की भाँति एक है और ज्ञान-ज्ञेय-द्वैतनय से पर के प्रतिबिम्बों से संयुक्त दर्पण की भाँति अनेक हैं। ___1. आत्मा में ऐसी योग्यता है कि वह ज्ञेयों को जानकर, उनसे भिन्न रहते हुए भी ज्ञेय को जाननेवाली पर्याय अर्थात् ज्ञेयाकार ज्ञान में तन्मय रहकर परिणमे - इस योग्यता को ही ज्ञान-ज्ञेय-अद्वैतधर्म कहते हैं और इसे जाननेवाला ज्ञान, ज्ञान-ज्ञेय-अद्वैतनय कहलाता है। 2. ज्ञान-ज्ञेय-अद्वैतनय से ज्ञेयाकार ज्ञान को ही उपचार से ज्ञेय
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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