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सैंतालीस नय
भाँति व्यापक है और विशेषनय से उसके एक मोती की भाँति अव्यापक है।
1. आत्मा में अपने गुण- पर्यायों में व्याप्त होकर रहने की योग्यता को सामान्यधर्म कहते हैं और उसे जाननेवाला ज्ञान, सामान्यनय कहलाता है।
2. यदि द्रव्य, अपने गुण - पर्यायों में व्याप्त न हो तो यह गुण या यह पर्याय, इस द्रव्य की है - ऐसा किस आधार पर कहा जा सकेगा ? अर्थात् ज्ञान, आत्मा का गुण है और मतिज्ञान आदि उसकी पर्यायें हैं - ऐसा नहीं कहा जा सकता।
3. आत्मा में ऐसी योग्यता भी है, जिससे उसका एक गुण या पर्याय, अन्य गुणों या पर्यायों में प्रवेश नहीं कर सकती । प्रत्येक गुण, अपने-अपने स्वभाव में और प्रत्येक पर्याय, अपने-अपने स्वकाल में सत्रूप से विद्यमान है - इस योग्यता को ही विशेषधर्म कहते हैं और इसे जाननेवाले ज्ञान को विशेषनय कहते हैं।
4. आत्मा, अपनी मिथ्यात्व और सम्यक्त्व, दोनों पर्यायों में व्यापक है अर्थात् इनके स्वकाल में इन पर्यायरूप में परिणमन करता है, परन्तु यदि मिथ्यात्व पर्याय, आगामी सभी पर्यायों में व्यापक हो जाए तो मिथ्यात्व का अभाव कभी नहीं हो सकेगा।
मिथ्यात्व पर्याय का नाश होकर सम्यक्त्व पर्याय प्रकट होने पर मानो सम्पूर्ण आत्मा ही पलट गया है ऐसा प्रतिभासित होता है; अतः पर्याय अपेक्षा आत्मा अव्यापक धर्मस्वरूप भी है।
प्रश्न - मिथ्यात्व तो अनादिकाल से है और क्षायिक सम्यक्त्व, अनन्त काल तक रहेगा तो पर्यायों का इतना सुदीर्घ होने से को दूसरी पर्यायों में व्यापक क्यों न माना जाए?
एक
पर्याय