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नय-रहस्य
भावनय
1. आत्मा को उसकी वर्तमान पर्यायरूप में जाना जाए - ऐसी योग्यता को उसका भाव नामक धर्म कहा जाता है तथा इसे जाननेवाला श्रुतज्ञान का अंश, भावनय कहा जाता है।
2. यदि कोई डॉक्टर पूजा कर रहा हो तो उसे डॉक्टर कहना द्रव्यनय है और पुजारी कहना भावनय है।
संक्षेप में उपर्युक्त चारों नयों को निम्नलिखित सरल उदाहरण द्वारा भी समझा जा सकता है -
• जिनेन्द्र नाम के व्यक्ति को जिनेन्द्र कहना, नामनय है। • अन्तर्मुख वीतरागी प्रतिमा को जिनेन्द्र कहना, स्थापनानय है।
• मुनिराज को जिनेन्द्र कहना अथवा सिद्धों को तीर्थंकर कहना, द्रव्यनय है।
• साक्षात् जिनेन्द्र भगवान को जिनेन्द्र कहना, भावनय है।
इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि आत्मा में विद्यमान नामस्थापना-द्रव्य-भाव - ये धर्म ज्ञेय हैं तथा इनको जाननेवाले चारों नय, श्रुतज्ञानात्मक हैं और इनके आधार पर प्रचलित होनेवाला लोक व्यवहार, निक्षेप है।
इन चारों नयों को जानने से आत्मा की विशिष्ट योग्यताओं का ज्ञान होता है और उसके प्रतिपादन की विभिन्न शैलियों द्वारा दिखाई देने वाला विरोध मिट जाता है।
(16-17)
सामान्यनय और विशेषनय आत्मद्रव्य, सामान्यनय से हार-माला-कंठी के डोरे की