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________________ सैंतालीस नय 329 3. शरीर में उपचार से जीव की स्थापना करके शरीर को जीव कहा जाता है; जैसे, मनुष्य जीव, एकेन्द्रिय जीव, त्रसजीव आदि। इसप्रकार जीव में ऐसी योग्यतारूप धर्म है कि उसकी स्थापना, पुद्गल-पिण्डों में जानी जा सके, की जा सके। ____4. स्थापना, तदाकार और अतदाकार के भेद से दो प्रकार की होती है। मूर्ति में भगवान की स्थापना के प्रयोग तो जगत् में देखे ही जाते हैं, जो तदाकार स्थापना कहलाते हैं; किसी के द्वारा भेंट में प्राप्त घड़ी, रूमाल आदि वस्तुओं को देखकर उस व्यक्ति की याद आती है, अतः इसे भी अतदाकार स्थापना का प्रयोग कहा जा सकता है। इसी प्रकार पूजन के अष्ट द्रव्यों में नैवेद्य, दीप, धूप, फल की अतदाकार स्थापना समझनी चाहिए। द्रव्यनय 1. आत्मा को उसकी भूत-भविष्य की पर्यायों के रूप में वर्तमान में देखा जा सके - ऐसी योग्यता उसमें है, जिसे द्रव्य नामक धर्म कहते हैं तथा इस योग्यता को जाननेवाला ज्ञान, द्रव्यनय कहलाता है। 2. राजा के पुत्र को राजा के रूप में देखना (भाविद्रव्यनय) राजा यदि मुनि हो जाए तो भी उन्हें राजा के रूप में देखना (भूतद्रव्यनय) तथा ऋषभादि तीर्थंकर भगवन्तों को सिद्ध हो जाने पर भी तीर्थंकर के रूप में देखना (भूतद्रव्यनय) - ये सब द्रव्यनय के ही प्रयोग हैं। ____ 3. सैंतालीस नयों में दो द्रव्यनय हैं - पहला द्रव्यनय, आत्मा को सामान्य चैतन्य मात्र देखता है और यह चौदहवाँ द्रव्यनय, आत्मा को उसकी भूत-भविष्य की पर्याय के रूप में देखता है। प्रथम द्रव्यनय के साथ पर्यायनय कहा गया है और इस द्रव्यनय के साथ भावनय कहा गया है अथवा यह चौदहवाँ द्रव्यनय चार निक्षेपों वाला द्रव्यनय है।
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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