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________________ नैगमादि सप्त नय " "313 नयों के हेतु भी हैं। इन सात नयों को उक्त क्रम में रखने का कारण भी यही है। जैसा कि सर्वार्थसिद्धि, अध्याय 1, सूत्र 33 की टीका में कहा है - उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषयवाले होने के कारण इनका यह क्रम कहा है। पूर्व-पूर्व के नय, आगे-आगे के नयों के हेतु हैं, इसलिए भी यह क्रम कहा है। इसप्रकार ये नय, पूर्व-पूर्व विरुद्ध महा विषयवाले और उत्तरोत्तर अनुकूल अल्प विषयवाले हैं। नैगमादि सात नय, उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषयग्राही हैं - यह तथ्य इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि पक्षी नगर में, वृक्ष पर, शाखा पर, उपशाखा पर, उपशाखा के एक भाग में, अपने शरीर में तथा अपने कण्ठ में बोलता है। इसीप्रकार प्रत्येक नय का विषय उत्तरोत्तर आगे बढ़ता हुआ सूक्ष्म होता जाता है। इस सन्दर्भ में पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा द्वारा सर्वार्थसिद्धि वचनिका, पृष्ठ 111 पर किया गया स्पष्टीकरण ध्यान देने योग्य है, जो इसप्रकार है - . इसी अनुक्रम से इन नयों के कथन जानना। नैगमनय ने तो वस्तु के सत्-असत् दोनों स्वरूपों को कहा। संग्रहनय ने केवल सत् ही को कहा। व्यवहारनय ने सत् में भी एक भेद मात्र कहा। ऋजुसूत्रनय ने केवल वर्तमान सत् ही कहा। शब्दनय ने वर्तमान सत् में भी भेद करके एक कार्य को पकड़ा। समभिरूढ़नय ने इस कार्य के अनेक नामों में से भी एक नाम को ग्रहण किया। एवंभूतनय ने उसमें भी जिस नाम को ग्रहण किया, उस ही क्रियारूप परिणमते भाव को ग्रहण किया। इसप्रकार जिस किसी पदार्थ का कथन करना हो, उन सब पर ही इसप्रकार नय का प्रयोग कर लेना चाहिए। यहाँ इन नयों का संक्षिप्त विवेचन किया गया है। इनकी विस्तृत
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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