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नय - रहस्य
यह भी अभी दोषयुक्त है, क्योंकि यहाँ भी 'घ' इस वर्ण में 'घ्' और 'अ' - इन दो स्वतन्त्र वर्णों (व्यंजन और स्वर ) का संयोग है। 'घ्' और 'अ' मिलकर घ बनता है। अतः 'घ' भी कोई चीज नहीं। 'घ्' और अ स्वतन्त्ररूप से रहते हुए जो कुछ भी अपनेरूप के वाचक होते हैं, वही एवंभूतनय का वाच्य है।
सूक्ष्म से सूक्ष्मतर और वहाँ से भी सूक्ष्मतम दृष्टि में प्रवेश करता हुआ यह नय, इसप्रकार केवल एक असंयुक्त वर्ण को ही वाचक मानता है।
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यहाँ शंका की जा सकती है कि इसप्रकार तो वाच्य-वाचकभाव का अभाव हो जाएगा और ऐसा हो जाने पर लोक-व्यवहार का तो लोप हो ही जाएगा, बल्कि एवंभूतनय का भी स्वयं लोप हो जाएगा, क्योंकि वह नय गूँगावत् बनकर रहने के कारण स्वयं अपना भी प्रतिपादन करने में समर्थ न हो सकेगा और ऐसी अवस्था में वह नाममात्र को ही नय कहलाएगा, परन्तु उसका स्वरूप कुछ न कहा जा सकेगा।
इस शंका का उत्तर, कषायपाहुड़, पुस्तक 1, पृष्ठ 243 पर निम्नप्रकार दिया है
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यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ पर एवंभूतनय का विषय दिखलाया गया है।'
सात नयों में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता
इसप्रकार हम देखते हैं कि ये तीनों ही नय, भाषा के प्रयोगों को आवश्यकतानुसार सुसंगतरूप प्रदान करनेवाले और उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषयवाले हैं। ये ही क्यों, नैगमादि सभी सात नय, क्रमशः उत्तरोत्तर सूक्ष्म और अल्प विषयवाले हैं और पूर्व-पूर्व के नय, आगे-आगे के 1. नय- - दर्पण, पृष्ठ 432-434