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________________ नैगमादि सप्त नय 311 न्यायाधीश, व्यापारी, सैनिक आदि सभी के बारे में यथायोग्य समझ लेना चाहिए। ___एवंभूतनय के अनुसार शब्द-प्रयोगों को और अधिक सूक्ष्मता से समझने के लिए नय-दर्पण, पृष्ठ 432-434 पर व्यक्त किये गये निम्नलिखित विचार दृष्टव्य हैं - इतना ही नहीं, इस नय का तर्क तो यहाँ से भी आगे निकल जाता है। वह द्वैत का सर्वथा निरास (निराकरण) करनेवाला है। अतः उसकी सूक्ष्म दृष्टि में ज्ञान और वान् - इन दो पदों का सम्मिलन करके एक 'ज्ञानवान्' शब्द बनाना युक्त नहीं। अथवा आत्म और निष्ठ - इन दो पदों का समास करके एक 'आत्मनिष्ठ' शब्द बनाना युक्त नहीं। आत्मा अकेला आत्मा ही है। आत्मा में निष्ठा पानेवाला - ऐसे विशेषण-विशेष्यभाव की क्या आवश्यकता है? अर्थात् प्रत्येक शब्द एक ही अर्थ का द्योतक है, संयुक्त अर्थ का नहीं। जहाँ पदों का समास भी सहन नहीं किया जा सकता, वहाँ अनेक शब्दों के समूहरूप वाक्य कैसे बोला जा सकता है? अर्थात् एवंभूतनय की दृष्टि में शब्द ही शब्द हैं, वाक्य नहीं। इतना ही नहीं, एक असंयुक्त स्वतन्त्र शब्द या पद भी वास्तव में कोई वस्तु नहीं, क्योंकि वह भी 'घ', 'ट' आदि अनेक वर्णों को मिलाने से उत्पन्न होते हैं। दो वर्गों को मिलाने से तो आगे-पीछे का क्रम पड़ता है। जैसे, घट शब्द में 'घ' पहले बोला गया और 'ट' पीछे। जो दृष्टि केवल एक क्षणग्राही है, वहाँ यह आगे-पीछे का क्रम कैसे सम्भव हो सकता है? जब 'घ' बोला गया, तब 'ट' नहीं बोला गया और जब 'ट' बोला गया, तब 'घ' नहीं बोला गया। अतः 'घ' व 'ट' - ये दोनों ही स्वतन्त्र अर्थ के प्रतिपादक रहे आवें, इनका समास या संयोग करके अर्थ ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं।
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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