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________________ 310 नय-रहस्य इस नय की सर्वार्थसिद्धि, अध्याय 1, सूत्र 33 की टीका में निम्नलिखित व्याख्या की गई है - जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई, उसीरूप निश्चय करानेवाले नय को एवंभूतनय कहते हैं। आशय यह है कि जिस शब्द का जो वाच्य है, उसरूप क्रिया के परिणमन के समय ही उस शब्द का प्रयोग करना युक्त है, अन्य समय में नहीं। जब आज्ञा-ऐश्वर्यवाला हो, तभी इन्द्र है, अभिषेक करनेवाला नहीं और न पूजा करनेवाला ही। जब गमन करती हो, तभी गाय है, बैठी हुई नहीं और न सोती हुई ही। अथवा जिस रूप से अर्थात् जिस ज्ञान से आत्मा परिणत हो, उसी रूप से उसका निश्चय करानेवाला नय, एवंभूतनय है। यथा - इन्द्ररूप ज्ञान से परिणमित आत्मा, इन्द्र है और अग्निरूप ज्ञान से परिणमित आत्मा, अग्नि है। यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने योग्य है कि अग्नि को जाननेवाला आत्मा भी उस समय अग्नि है - ऐसा कहना एवंभूतनय का कथन है। . इससे स्पष्ट है कि ज्ञेयाकार ज्ञानरूप परिणमित आत्मा को उस ज्ञेय के नाम से सम्बोधित करना, एवंभूतनय को इष्ट है, क्योंकि आत्मा उस समय उस ज्ञेय-सम्बन्धी ज्ञानरूप अर्थात् ज्ञेय को जाननेरूप ज्ञानक्रियारूप परिणमित हो रहा है, ज्ञान का संज्ञाकरण अर्थात् उसकी पहचान, ज्ञेय के बिना नहीं हो सकती, अतः घट आदि ज्ञेयाकाररूप ही ज्ञान है और ज्ञान ही आत्मा है, इसलिए इस नय से वह आत्मा, उस समय घटरूप (घटाकार ज्ञानरूप) कहलाता है। एवंभूतनय के प्रयोग हमारे लोक जीवन में भी व्याप्त हैं। किसी डॉक्टर को समभिरूढ़नय से हर समय डॉक्टर साहब कहकर सम्बोधित तो किया जा सकता है, परन्तु उससे हर समय इलाज नहीं कराया जा सकता। सही इलाज तो चिकित्सालय में ही सम्भव है। यही व्यवस्था
SR No.007162
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages430
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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