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नय-रहस्य है, जिन्हें एकार्थवाचक शब्दनय द्वारा स्वीकार किया जाता है।
जिसप्रकार हाथी, घोड़ा और बैल शब्द के वाच्य भिन्न-भिन्न पशु होते हैं; परन्तु इन्द्र, शक्र और पुरन्दर शब्द के वाच्य भिन्न-भिन्न व्यक्ति नहीं, अपितु ये देवराज इन्द्र की ही भिन्न-भिन्न विशेषताओं के वाचक हैं।
समभिरूढ़नय की उक्त व्याख्या, एक वाच्य के अनेक वाचक (एकार्थवाची) के सन्दर्भ में है। अब एक वाचक शब्द के अनेक वाच्यार्थों के सन्दर्भ में समभिरूढ़नय के स्वरूप का विचार करते हैं -
आचार्य पूज्यपाद सर्वार्थसिद्धि टीका में लिखते हैं - जो नाना अर्थों को छोड़कर, प्रधानता से एक अर्थ में रूढ़ होता है, वह समभिरूढ़नय है। जैसे, 'गो' शब्द के वचन आदि अनेक अर्थ पाये जाते हैं तो भी वह गाय नामक पशु के अर्थ में रूढ़ है।
समभिरूढ़नय के उक्त दोनों भेदों को स्पष्ट करते हुए द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र, गाथा 214 में कहा गया है - ... जो अर्थ को शब्दारूढ़ एवं शब्द को अर्थारूढ़ कहता है, वह समभिरूढ़नय है। जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर।
शब्दारूढ़ - समान स्वभावी एकार्थवाची शब्दों में व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थभेद करना, शब्दारूढ़ नय है। जैसे - इन्द्र, शक्र और पुरन्दर। ____ अर्थारूढ़ - अनेकार्थवाची शब्दों के एक लोकप्रसिद्ध अर्थ को स्वीकार करके अन्य अर्थों की उपेक्षा करना, अर्थारूढ़ है। जैसे, 'गो' शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, परन्तु मात्र गाय के अर्थ में इसका प्रयोग किया जाता है। कोश ग्रन्थों में एक शब्द के अनेक अर्थ तथा नाममालाओं