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नय - रहस्य
पुल्लिंगी होने के कारण एक 'शचीपति' के वाचक हैं - ऐसा शब्दन कहता है।
तात्पर्य है कि काल, कारक, लिंग, संख्या, वचन और उपसर्ग के भेद से शब्द के अर्थ में भेद मानने को शब्दनय कहते हैं। समभिरूढ़नय
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समभिरूढ़नय, शब्दनय से भी अधिक सूक्ष्म है। शब्दनय लिंग, संख्या, काल आदि दोषों से रहित एकार्थवाची शब्दों की सत्ता स्वीकार करता है, परन्तु समभिरूढ़नय, एकार्थवाची शब्दों के भी भिन्न-भिन्न अर्थ स्वीकार करता है, उन्हें एकार्थवाची नहीं कहता है।
शब्दय द्वारा ग्रहण किये गये समान स्वभावी एकार्थवाची शब्दों में निरुक्ति या व्युत्पत्ति - अर्थ से अर्थभेद स्वीकार करना, समभिरूढ़नय का मुख्य कार्य है। इसके पक्ष में यह तर्क विचारणीय है कि लोक में जितने पदार्थ हैं, उनके वाचक शब्द भी उतने ही हैं। यदि अनेक शब्दों का एक ही अर्थ माना जाएगा तो उनके वाच्य पदार्थ भी मिलकर एक हो जाएँगे, परन्तु यह सम्भव नहीं है; अतः प्रत्येक शब्द का अर्थ भिन्न-भिन्न स्वीकार करना चाहिए ।
इस सन्दर्भ में सर्वार्थसिद्धि टीका में समागत निम्न विचार ध्यान देने योग्य हैं -
अर्थ का ज्ञान कराने के लिए शब्दों का प्रयोग किया जाता है। ऐसी स्थिति में एक अर्थ का एक शब्द से ज्ञान हो जाता है, इसलिए पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करना निष्फल है। यदि शब्दों में भेद है तो उनमें अर्थभेद भी अवश्य होना चाहिए। इसप्रकार नाना अर्थों का समभिरोहण करनेवाला समभिरूढ़नय कहलाता है । जैसे, इन्द्र, शक्र और पुरन्दर - ये तीन भिन्न शब्द होने से इनके अर्थ भी भिन्न-भिन्न